।।ओउम्।।
आर्यावर्त के पतन का एक कारण मूर्ति पूजा
मूर्ति पूजा पर पौराणिक मत के मान्य आचार्य
# आदिशंकराचार्य
❇आचार्य शंकर प्रणीत -# परापूजा
।।2।। पूर्णस्याssवाहनं कुत्र ,सर्वाधारस्य चासनम् ।
स्वच्छस्य पाद्यमर्घ्यं च ,शुद्धस्याचमनं कुतः ।।
अर्थ : सर्वव्यापी का आह्वान कैसे किया जा
सकता है ?
सर्वाधार को बैठने के लिए आसान की क्या
आवश्यकता ? नित्य स्वच्छ को पैर धोने के लिए
पाद्य ,मुँह घोने के लिए अर्घ्य और नित्य शुद्ध को
आचमन करने के लिए जल कैसे दिया जा सकता
है ?
बुलाया किसी को वहाँ जाता है जहाँ आहूत
व्यक्ति पहले विद्यमान नहीं होता ।जो पहले ही
वहाँ उपस्थित है उसे आवाज़ लगाकर आने के लिए
कहना सरासर मूर्खता है ।जड़ पाषाण से निर्मित
मूर्ति में भगवान् तब आते हैं जब उनका आह्वान किया
जाता है ।इसे पंडित मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा करना
कहते हैं ।कण - कण में व्याप्त होने से जो सदैव सर्वत्र
विद्यमान है ,उसे बुलाए जाने पर वहाँ आने का प्रश्न
ही नहीं उठता ।
।।3।। निर्मलस्य कुतः स्नानं ,वस्त्रं विश्वोदरस्य च ।
अगोत्रस्य त्ववर्णस्य ,कुतस्तस्योपवीतम् ।।
अर्थ : जो सदा निर्मल है उसके स्नान का क्या
प्रायोजन? जिसके उदर में संपूर्ण ब्रह्मांड समाया है
,उसे वस्त्र कैसे पहनाएँगे ?जो गोत्र और वर्ण से रहित
है ,उसे यज्ञोपवीत कैसे पहनाएँगे ?
नित्य पवित्र परमेश्वर को स्नान करना सर्वथा
व्यर्थ है ।परमेश्वर विराट् है।इतने विराट् शरीर को
आच्छादित करने के लिए कितना बड़ा वस्त्र
चाहिए ?उसे ढककर कोई यह समझे कि मैंने परमेश्वर
को ढक दिया तो यह उसका पागलपन है।आचार्य
शंकर कहते हैं कि ईश्वर निराकार है ।उसका न सिर ,न
हाथ ,न बगल है और न कटि है ।ऐसा परमेश्वर
यज्ञोपवीत धारण कैसे करेगा ?उसे किसी
कर्मकाण्ड में भाग नहीं लेना ।फिर उसे यज्ञोपवीत
पहनाने का नाटक क्यों किया जाए ?
।।4।। निर्लेपस्य कुतो गन्धः पुष्पं निर्वासन्सय च ।
निर्विशेषस्य का भूषा कोsलंकारो निराकृतेः ।।
निर्लिप्त के लिए गन्ध कैसा ?जिसकी
घ्राणेन्द्रिय नहीं उसे सुगंधि की कामना भी नहीं ।
वह हाथ में पुष्प लेकर क्या करेगा ?निर्विशेष की
कैसी वेशभूषा ?
।।5।। निरञ्जनस्य किं धूपैर्दीपैर्वा सर्वसाक्षिणः ।
निजानन्दैकतृप्तस्य नैवेद्यं किं भवेदिह ।।
जो निरंजन है ,उसे धूप से क्या प्रायोजन ?जो
सबका साक्षी है ,उसे देखने के लिए दीपकों के
प्रकाश की क्या आवश्यकता है ?पूर्णतया तृप्त है ,उसे
नैवेद्य की अपेक्षा क्यों हो ?
।।6।। विश्वानन्दयितुस्तस्य किं तांबूलं प्रकल्पयते ।
स्वयं प्रकाशाश्चिद्रूपो योsसावर्कादिभासकः ।।
जो तमाम विश्व को आनंद देनेवाला है ,उसे पान
खाने में क्या आनंद आयेगा ?जो स्वयं प्रकाश स्वरूप है
और ज्ञानस्वरूप है और सूर्य आदि को प्रकाश देता है
,उसे देखने के लिए भौतिक साधनों से प्राप्य प्रकाश
की क्या आवश्यकता ?
।।9।। एकमेव परापूजा सर्वावस्थासु सर्वदा ।
एकबुद्ध्या तु देवेशे विधेया ब्रह्मवित्तमैः ।।
इस प्रकार ब्रह्मवेत्ताओं को सदा एकमात्र देवेश
की पूजा प्रत्येक अवस्था में करनी चाहिए ।जिस
प्रकार “देवानां देवः महादेवः” सब देवताओं
(वेदोक्त) में बड़ा कहलाता है ,वैसे ही “देवानां ईशः
देवेशः” सब देवों (विद्वानों )का स्वामी देवेश
,परमात्मा है ।मात्र उसी की उपासना करनी
चाहिए ,ईश्वर या भगवान् नामधारी जड़ पदार्थों
की नहीं ।
“आचार्य शंकर ने मूर्ति पूजा का बड़े ही तीव्र
शब्दों में विरोध किया है ,लेकिन आज उनके ही
अनुयायी अपने आचार्य की शिक्षा के प्रतिकूल चल
रहे हैं ।जब कुछ समय की मूर्ति पूजा द्वारा सब पाप
कट जाएँ और मनोकामनाएं पूर्ण हो जाएँ तो कौन
कठोर सत्यानुकूल आचरण कर जीवन खपाना
चाहेगा ? लेकिन सत्य तो सत्य ही है ।”
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