जो दिन-रात योगविद्या के अध्ययन और अभ्यास में तत्पर रहता था,
जिसे दिन-रात वेदों के प्रचार और प्रसार की चिंता लगी रहती थी,
जो दिन-रात आर्यावर्त(भारत) की स्वतन्त्रता की चिंता किये रहता था,
जो चाहता था की हमारे देश में फिर से वीर पैदा हों , ज्ञानी पैदा हों,
जिसका सपना था की प्रत्येक घर में स्वाहा-स्वाहा की ध्वनि गूंजें,
जिसकी हार्दिक इच्छा थी की जन्म व्यवस्था की रूढिवादिता समाप्त होकर समाज में कर्म व्यवस्था का पालन किया जाए,
जिसके मन में एक धुन थी की स्वयं धर्म पर बलिदान हों जाऊं और अनेक बलिदानी पैदा करूँ ,
वाह रे दयानंद , मेरे गुरु दयानंद, आर्यों की शान दयानंद कितनी तेरी चाहना लिखूं और किस-किस पर लिखूं
वो पुतला था चाहनाओं का ,पूरा सुधार चाहता था|
वैदिक धर्म का फिर से आर्यों में प्रचार चाहता था||
न जिया वो अपने लिए,सदा जिया औरों के लिये|
जगत में फिर से वो ऋषियों का राज चाहता था ||“’
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