।।ओ३म्।।त्वं नो अग्ने महोभिः पाहि विश्वस्या अरातेः। उत द्विषो मर्त्यस्य।।
।।सामवेद १/६।।
हे प्रभो आप हमें अदान की भावना से और द्वेष आदि भावनाओं से अपनी तेजस्विता के द्वारा बचाओ। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। मनुष्य के सामाजिक जीवन में दो बडे दोष आजाते है। एक अदान की भावना और दुसरा द्वेष भावना। यदि मनुष्य में देने की वॄत्ति न हो तो किसीभी सामाजिक कार्य का होना सम्भव नहीं होगा। क्योंकि सारी ही सामाजिक उन्नति दान की वॄत्ति पर ही निर्भर है। जिस प्रकार अदान की वॄत्ति मानवसभ्यता की सामाजिक उन्नति के लिए घातक है उसी प्रकार द्वेष की वॄत्ति भी मानव सभ्यता की सामाजिक उन्नति के लिए घातक है।द्वेषवश मनुष्य की शक्ति अपने व मानवसमाज के उत्थान में न लगकर दुसरों के पतन में लगती है। द्वेषवश हम एक-दुसरे से प्रिती न कर वैर ठान लेते है। इसलिए हे प्रभु आपकी तेजस्विता से हमारे इन दुर्गुणों को नष्ट कर दीजिए, ताकि हम खुब दान देनेवाले तथा किसीका द्वेष न करके सुखों का सेचन करनेवाले बनें। तभी हम मानव समाज व राष्ट्र को स्वर्ग बना सकेंगे।
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