१७ वैशाख 30 अप्रैल 15
😶 “ तेरी इच्छा ” 🌞
🔥 ओ३म् अभ्रातृव्यो अना त्वमनापिरिन्द्र जनुषा सनादसि । युधेदापित्वमिच्छसे ॥🔥
ऋ० ८ । २१ । १३ ; अथर्व० २० । ११४ । १
शब्दार्थ:– हे परमेश्वर ! तुम जन्म से ही, स्वभाव से ही सनातन हो, सनातन से ही ऐसे हो, पर तुम युद्ध द्वारा ही बन्धुत्व को चाहते हो ।
विनय :– हे परमेश्वर ! तुम्हारे लिए न कोई शत्रु है और न कोई बन्धु है । तुम जिस उच्च स्वरूप में रहते हो वहा शत्रुता और बन्धुता का कुछ अर्थ ही नही ; और तुम्हारे लिए कोई नायक व नियन्ता कैसे हो सकता है ? तुम ही एकमात्र सब जगत के नियन्ता हो, नेता हो । तुम जन्म से, स्वाभाव से ही ऐसे हो ।'जनुषा’ का यह तात्पर्य नही की तुम्हारा कभी जन्म होता है । तुम तो सनातन हो , सनातन रूप से ही शत्रुरहित और बन्धुरहित हो, पर निर्लिप्त होते हुए भी तुम हमारे बन्धुत्व को चाहते हो और इस बन्धुत्व को तुम युद्ध द्वारा चाहते हो, युद्ध द्वारा ही चाहते हो । अहा ! कैसा सुन्दर आयोजन है ! तुम चाहते ही की संसार के सब प्राणी सांसरिक युद्ध करके ही एक दिन तुम्हारे बन्धु बन जाए, तुम्हारे बन्धुत्व का साक्षात्कार कर ले ।
सत्य सनातन वैदिक धर्म
………………जय
🐚🐚🐚 वैदिक विनय से 🐚🐚🐚
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