~•~•~•~•~उपनिषद्-चिंतन~•~•~•~•~•~
||श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीर: ।
श्रेयो हि धीरोअभिप्रेयसो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद् वृणीते ||
‘श्रेय और प्रेय (परस्पर मिश्रित होकर) मनुष्य के पास आते हैं । बुद्धिमान पुरुष यथायोग्य सोच-विचार करके इन दोनों को अलग करता है।विवेकी पुरुष प्रेय(मनोनुकुल,मन को प्रिय) और श्रेय(वास्तव में ग्रहण करने योग्य,सर्वथा हितकारी)में से श्रेय को ग्रहण करता है किंतु मूढ(महामूर्ख) योगक्षेम (प्राप्त किए हुए की रक्षा) चलाने के लिए प्रेय को पसंद करता है।
(कठोपनिषद्:२.२.२.)
सार:– मनुष्य को मन पर विश्वास करके नहीं चलना चाहिए , मन के अनुसार नहीं रहना चाहिए , जो हमारे सम्पूर्ण हित को साधे , और जो कल्याणकारी , व सर्वोत्तम हो , उसे ही ग्रहण करना चाहिए ।।
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