Sunday, June 10, 2018

*।। ओ३म् ।।**वैदिक साहित्य और विज्ञान*सूर्य की बाहरी परतों, जोकि डिस्क (फोटोस्फियर) के ऊपर हजारों...

*।। ओ३म् ।।*


*वैदिक साहित्य और विज्ञान*


सूर्य की बाहरी परतों, जोकि डिस्क (फोटोस्फियर) के ऊपर हजारों कि.मी. तक फैला है, को प्रभामंडल कहा जाता है। इसका तापमान मिलियन डिग्री केल्विन से भी अधिक है, जोकि करीबन 6000 केल्विन के सौर डिस्क तापमान से भी बहुत अधिक है। सौर भौतिकी में अब तक इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिल पाया है कि किस प्रकार प्रभामंडल का तापमान इतना अधिक होता है।

सूर्य के अध्धयन के लिए नासा के अतिरिक्त विश्व का हर देश जो ब्रम्हांड का रहस्यों को लेकर उत्सुक है सूर्य के अध्धयन के लिए आतुर है भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधानो को देखने वाला ISHRO भी सूर्य के अनसुलझे रहस्यों को सुलझाने के लिए आदित्य-1 मिशन सूर्य की स्टूडी के लिए भेजने की तैयारी कर रहा है, दृश्य उत्सर्जन रेखा प्रभामंडललेखी (वी.ई.एल.सी.) नामक महत्वाकांक्षी उपग्रह को ले जाने हेतु 400 कि.ग्रा. श्रेणी उपग्रह के रूप में किया गया था तथा उसे 800 कि.मी. निम्न भू कक्षा में स्थापित करने की योजना थी। सूर्य-पृथ्वी प्रणाली के लेग्रांजी बिंदु के आस-पास प्रभामंडल कक्षा में स्थापित उपग्रह से मुख्य लाभ यह होता है कि इससे बिना किसी आच्छादन/ग्रहण के लगातार सूर्य को देखा जा सकता है। अत: आदित्य-1 मिशन को अब “आदित्य-एल1 मिशन” में संशोधित कर दिया गया है और इसे एल़1 के आस-पास प्रभामंडल कक्षा में प्रविष्ट कराया जाएगा, जोकि पृथ्वी से 1.5 मिलियन कि.मी. पर है जिसका उद्देश्य सूर्य के उन रहस्यों को जानना है जिनसे अभी तक मानव सभ्यता अनजान है -


*इन वैज्ञानिक खोजो से पूर्ववर्ती वैदिक साहित्यो में पृथ्वी, सूर्य, ग्रहों, ब्रम्हांड आदि के बारे में पहले से ही लिखा गया है* सैकड़ो साल पहले आर्यभट्ट ने ग्रहों की दूरी का सटीक आकलन किया। वैदिक साहित्यो में आसान और आलंकारिक भाषा मे इसे समझाया गया लेकिन हम इन वैदिक साहित्यो को सिर्फ पूजा पाठ की सामग्री मानकर पढ़ना तो दूर इसके बारे में जानने के लिए भी कभी प्रयत्न नही करते -


सूर्य के विषय मे वैदिक साहित्य में विस्तृत जानकारी दी गयी है कुछ जानकारियां आइये आपसे साझा करता हूं -

1 - सूर्य_के_प्रकाश_की_गति -

आधुनिक विज्ञान अनुसार - 1,86,286 मील प्रति सेकेण्ड है ।


वैदिक - *‘तथा च स्मर्यते योजनानां सहस्त्रं द्वे द्वे शते-द्वे च योजने एकेन निमिषार्धेन क्रममाण नमोऽस्तुते ।।’*

।। सायण ऋृग्वेद भाष्य 1.50.4 ।।

अर्थात्

आधे निमेष में 2202 योजन का मार्गक्रमण करने वाले प्रकाश तुम्हें नमस्कार है ।

गणना - ½ निमेश = 0.1056 सेकेण्ड

(निमेष की गणना प्रथम कंमेंट में )

अर्थात् 1 योजन = 9.09 मील

(योजन की गणना द्वितीय कमेंट में)

इस सूक्त के अनुसार -

प्रकाश की गति = 2202 योजन प्रति ½ निमेश

2202x9.09 मील प्रति 0.1056 सेकेण्ड = 189547.15909 मील प्रति सेकेण्ड


2 - सूर्य_के_किरणों_के_बारे_में -

आधुनिक विज्ञान - वैज्ञानिक सर आइजक न्यूटन ने इस तथ्य पर वैज्ञानिक प्रयोग किए तथा बताया कि श्वेत प्रकाश (सूर्य का प्रकाश या किरण) में सात रंग पहले से ही मौजूद होते है। प्रिज्म से गुजरने पर अपवर्तन के कारण यह 7 रंगों में विभक्त हो जाता है।

वैदिक -

*एको अश्वो वहति सप्तनामा ।* -ऋग्वेद 1-164-2

सूर्य के प्रकाश में 7 रंग होता है इस सूक्त में पहले से है ।

*अव दिवस्तारयन्ति सप्त सूर्यस्य रश्मय: ।* – अथर्ववेद 17-10 /17/9

सूर्य की सात किरणें दिन को उत्पन्न करती है। सूर्य के अंदर काले धब्बे होते है। जिसे विज्ञान आज इन धब्बो को सौर कलंक कहा है।


3 - सूर्य_की_बनावट -

आधुनिक विज्ञान - सूर्य का बाह्य प्रभामंडल दृश्यमान अंतिम परत है। इसके उपर की परते नग्न आंखों को दिखने लायक पर्याप्त प्रकाश उत्सर्जित करने के लिहाज से काफी ठंडी या काफी पतली है। और उसके चारो ओर गैसों का आवरण है ।

वैदिक -

*‘शकमयं धूमम् आराद् अपश्यम्, विषुवता पर एनावरेण।’* ऋग्वेद(1.164.43)

यानी सूर्य के चारों और दूर-दूर तक शक्तिशाली गैस फैली हुई हैं। यहां गैस के लिए धूम शब्द का प्रयोग किया गया है।


4 - ग्रहण_के_बारे_में -

आधुनिक विज्ञान - ग्रहण एक खगोलीय अवस्था है जिसमें कोई खगोलिय पिंड जैसे ग्रह या उपग्रह किसी प्रकाश के स्रोत जैसे सूर्य और दूसरे खगोलिय पिंड जैसे पृथ्वी के बीच आ जाता है जिससे प्रकाश का कुछ समय के लिये अवरोध हो जाता है इस अवस्था को ग्रहण कहते है।

वैदिक -

*यं वै सूर्य स्वर्भानु स्तमसा विध्यदासुर: ।*

*अत्रय स्तमन्वविन्दन्न हयन्ये अशक्नुन ॥* – ऋग्वेद 5-40-9

अर्थात जब चंद्रमा पृथ्वी ओर सूर्य के बीच में आ जाता है तो सूर्य पूरी तरह से स्पष्ट दिखाई नहीं देता। चंद्रमा द्वारा सूर्य के प्रकाश को ढंक लेना ही सूर्य ग्रहण है ।


5 - सूर्य_से_ग्रहों_की_दूरी -

आज पृथ्वी से सूर्य की दूरी (1.5 * 108 KM) है। इसे एयू (खगोलीय इकाई- astronomical unit) कहा जाता है। इस अनुपात के आधार पर निम्न सूची बनती है :-

ग्रह आर्यभट्ट का मान आधुनिक विज्ञान

बुध 0.375 एयू 0.387 एयू

शुक्र 0.725 एयू 0.723 एयू

मंगल 1.538 एयू 1.523 एयू

गुरु 5.16 एयू 5.20 एयू

शनि 9.41 एयू 9.54 एयू

ग्रहों की दूरी क्या हजारो वर्षो में प्रभावित नही हुई होगी ?


6 - सूर्य_एक_जीवाणुरोधी -

आधुनिक विज्ञान - अंधकार जीवाणुओं के परिवर्धन में सहायक है। बहुत से जीवाणु, जो सक्रिय रूप से अंधकार में चर (mobile) होते हैं, प्रकाश में लाए जाने पर आलसी हो जाता हैं तथा सूर्य के प्रकाश में पतले स्तर में रखे गए जीवाणु तीव्रता से मरते हैं। इन परिस्थितियों में कुछ केवल 10-15 मिनट के लिये जीवित रहते हैं। इसी कारण सूर्य का प्रकाश रोगजनक जीवाणुओं का नाश करनेवाले शक्तिशाली कारकों में माना गया है। साधारणत: दृश्य वर्णक्रम (spectrum) जीवाणुओं पर थोड़ा ही विपरीत प्रभाव रखते हैं तथा प्रकाश के वर्णक्रम के पराबैंगनी (ultraviolet) छोर में यह घातक शक्ति निहित रहती है।

वैदिक -

*'उत पुरस्तात् सूर्य एत, दुष्टान् च ध्नन् अदृष्टान् च,*

*सर्वान् च प्रमृणन् कृमीन्।’* अथर्ववेद (3.7)

अर्थात -

सूर्य का प्रकाश दिखाई देने वाले और न दिखाई देने वाले सभी प्रकार के प्रदूषित जीवाणुओं और रोगाणुओं को नष्ट करने की क्षमता रखता है।


7 - चंद्रमा_पर_प्रकाश -

आधुनिक विज्ञान -

चंद्रमा का स्वयं का प्रकाश नहीं है। वह पृथ्वी का एकमात्र उपग्रह है। वह सूर्य की किरणों से प्रकाशित होता है।

वैदिक -

*सुषुम्णः सूर्य रश्मिः चंद्रमा गरन्धर्व, अस्यैको रश्मिः चंद्रमसं प्रति दीप्तयते।’*

निरुक्त( 2.6)

*'आदित्यतोअस्य दीप्तिर्भवति।’*

यानी सूर्य की सुषुम्ण नामक किरणें चंद्रमा को प्रकाश देती हैं। चंद्रमा का स्वयं का प्रकाश नहीं है। वह सूर्य की किरणों से प्रकाशित होता है।


विशेष -

प्राचीन काल से खगोल विज्ञान वेदांग का हिस्सा रहा है। ऋग्वेद, शतपथ ब्राहृण आदि ग्रथों में नक्षत्र, चान्द्रमास, सौरमास, मल मास, ऋतु परिवर्तन, उत्तरायन, दक्षिणायन, आकाशचक्र, सूर्य की महिमा, कल्प का माप आदि के संदर्भ में अनेक उद्धरण मिलते हैं। इस हेतु ऋषि प्रत्यक्ष अवलोकन करते थे। कहते हैं, ऋषि दीर्घतमस् सूर्य का अध्ययन करने में ही अंधे हुए, ऋषि गृत्स्मद ने चन्द्रमा के गर्भ पर होने वाले परिणामों के बारे में बताया। यजुर्वेद के 18वें अध्याय के चालीसवें मंत्र में यह बताया गया है कि सूर्य किरणों के कारण चन्द्रमा प्रकाशमान है।

यंत्रों का उपयोग कर खगोल का निरीक्षण करने की पद्धति रही है। आर्यभट्ट के समय आज से 1500 से अधिक वर्ष पूर्व पाटलीपुत्र में वेधशाला (Observatory) थी, जिसका प्रयोग कर आर्यभट्ट ने कई निष्कर्ष निकाले।

भास्कराचार्य सिद्धान्त शिरोमणि ग्रंथ के यंत्राध्याय प्रकरण में कहते हैं, “काल” के सूक्ष्म खण्डों का ज्ञान यंत्रों के बिना संभव नहीं है। इसलिए अब मैं यंत्रों के बारे में कहता हूं। वे नाड़ीवलय यंत्र, यष्टि यंत्र, घटी यंत्र, चक्र यंत्र, शंकु यंत्र, चाप, तुर्य, फलक आदि का वर्णन करते हैं।

प्रत्यक्ष निरीक्षण एवं अचूक ग्रहीय व कालगणना का 6000 वर्ष से अधिक पुराना इतिहास रखने वाले हम भारतीय आज पश्चिमी देशों की ओर उम्मीद से देखते है जबकि उनसे बेहतर हम सदियो से थे बस अपना आत्मगौरव भूले बैठे है । *आइये एक बेहतर सनातन परंपरा को आगे बढ़ाए। पौराणिक अंधश्रद्धा को छोड़ के वेदों की और पुनः लौटे ।*



*।। धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ।।*


*ओ३म* 🚩


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