Saturday, April 4, 2015

इन्टरनेट देखने से लगता है कि आर्यसमाज की ख्याति पुनः दिन प्रतिदिन बढ़ने लगी है। ये तो सभी को ज्ञात...

इन्टरनेट देखने से लगता है कि आर्यसमाज की ख्याति पुनः दिन प्रतिदिन बढ़ने लगी है। ये तो सभी को ज्ञात होगा कि हिन्दू जाति के सभी प्रसिद्ध नेता मुक्तकंठ से इसके कामोँ की प्रशंसा करते आये हैँ। स्वामी दयानन्दजी की महत्ता का प्रभाव भारतवर्ष मेँ फैला हुआ है। परन्तु लोगो की शिकायत है कि यदि स्वामी दयानन्द यह भूल न करते तो समस्त भारतवर्ष शीध्र ही आर्यसमाज के झण्डे के नीचे आ जाता। भूल है “मूर्तिपूजा खण्डन”


स्वामीजी के जीवन मेँ भी लोग उनकी विद्या की प्रशंसा सुनकर उनकी ओर आकर्षित हो जाते थे, परन्तु मूर्तिपूजा का खण्डन सुनते ही उनसे शत्रुता करने लगते थे। उनको ऐसी मन्दिरोँ की गद्दियोँ का प्रलोभन दिया गया जिनकी वार्षिक आय लाख रूपये थी। शर्त यह थी कि “मूर्तिपूजा का खण्डन छोड़ दो, चाहे स्वयं न करो।” परन्तु लोग कहते हैँ कि स्वामीजी ने भूल की और यह शुभ अवसर अपने हाथ से जाने दिया। यदि वह रूपया उनके पास होता तो बहुत सी पुस्तकेँ लिख और छपवा सकते थे। बड़े-बड़े राजाओँ को अपना शिष्य बना सकते थे। पण्डित वर्ग की शत्रुता से बच सकते थे। समस्त हिन्दू जाति को एक झण्डे के नीचे करके स्वाराज्य प्राप्त कर सकते थे। कई लोग कहते हैँ कि आर्यसमाज अच्छा है परन्तु यही एक बात बुरी है कि मूर्ति का बेढप खण्डन करते हैँ और देवी-देवताओँ को नहीँ मानते।


चलिए मूर्तिपूजा के प्रश्न पर विचार करेँ। क्या मूर्तिपूजा से ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है? उत्तर है कि मूर्तिपूजा और ईश्वर प्राप्ति मेँ कोई परस्पर सम्बन्ध नही है। इसीलिए जब स्वामीजी को विश्वास हो गया कि मूर्तिपूजा प्राप्ति मेँ साधक नहीँ किन्तु बाधक है तो वो किसी प्रकार भी मूर्तिपूजा खण्डन छोड़ नही सकते थे। वे खुली आँखो से देख रहे थे कि इसी मूर्तिपूजा के कारण लोग अपने परमपिता जगदीश्वर को भूल गये और पाषाण आदि की मूर्तियोँ को ही जगदम्बा और जगदीश्वर आदि-आदि पुकारने लगे, फिर अन्य निर्बल आत्माओँ के समान स्वामीजी संसार के साथ इस बात पर समझौता कैसे करते?


परन्तु प्रश्न करने वाले कहते हैँ कि इस समझौते मेँ क्या हानि थी? देश और जाति के सुधार के लिए ऐसा समझौता कर भी लिया जाता तो क्या बुराई हो जाती? ऐसे महात्माओँ की संख्या कम नही है जिनके वचनोँ मेँ खण्डन पाया जाता है परन्तु उन्होनेँ कभी मूर्तियोँ के विरूद्ध इतना आन्दोलन नही किया। जहाँ प्रतिमा पूजन के खण्डन मेँ उन्होनेँ बहुत कुछ लिखा वहीँ गृहस्थोँ को मूर्ति पूजा से रोका भी नही। कबीर, दादू, नानक, तुकाराम आदि ऐसे कई महापुरूष हुए। उन्होनेँ

हिन्दू जाति को बहुत लाभ पहुँचाया और हिन्दू जाति कभी उनसे रूष्ट

नहीँ रही। मतभेद और बात है।


इन महात्माओँ ने हिन्दुओँ पर बहुत कुछ उपकार किये पर इसमेँ सन्देह नहीँ वे उपकार क्षणिक बनकर रह गये। स्वंय उनके सामने और उनके पीछे उनके अनुयायियोँ तक मेँ मूर्तिपूजा अपने भयंकर रूप के साथ बनी रही। दूसरे यह कि शायद इन महात्माओँ ने मूर्तिपूजा के रोग को इतना भीषण नहीँ समझा कि उसके निवारण के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर देँ।


स्वामी दयानन्द मूर्तिपूजा को न केवल अनावश्यक ही किन्तु एक भयंकर रोग भी समझते थे। जिसके होते सर्व प्रकार की उन्नति असम्भव थी। आजकल कुछ लोग कहते हैँ कि जैसे कहीँ बकरे, भैँसे या सुअर आदि बलि दी जाती है तो वो बुरा पर यदि कोई पुरूष मन्दिर मेँ जाकर श्रीकृष्ण या श्रीराम की मूर्ति बनाकर उनका शुद्ध चिन्तन करता है तो इसको इतना घृणित क्योँ माना जाय?


खेद से कहना पड़ता है इन लोगोँ ने मूर्तिपूजा की भीषणता पर कभी ध्यान नहीँ दिया। जिसे ये लोग शुद्ध मूर्तिपूजा कहते हैँ, वही घृणित मूर्तिपूजा का बीजरूप है। जब तक बीज को नष्ट नहीँ किया जायेगा, उस समय तक वृक्ष की डालियोँ को काटते रहना बुद्धिमत्ता नहीँ है। हिन्दू चाहे मूर्तिपूजा छोड़कर हमारे साथ न मिले फिर भी हमारा विचार है कि जब तक इनमेँ मूर्तिपूजा का एक अवशेष तक भी उपस्थित है तब तक इनकी कुप्रथायेँ दूर नहीँ हो सकती और यह इनको काल के गाल से नही बचा सकती। इनकी कौन सी बीमारी जिसको आप बिना मूर्ति-पूजा खण्डन के दूर कर लेगेँ? इनका अरबो रूपया प्रतिवर्ष मन्दिरोँ पर व्यय होता है। अनाथ चिथड़ो को तरसते हैँ मूर्तियाँ मखमल की रजाइयाँ ओढ़ती हैँ। दीन-दुनिखा भूख और आर्थिक तगीँ के कारण ईसाई और मुसलमान हुए जाते हैँ और पत्थर की मूर्तियोँ के आगे हलुआ रखा जाता है। बीमारोँ की सुश्रुषा के लिए लोगोँ के पास समय नहीँ परन्तु मूर्तिपूजा के लिए घण्टोँ व्यय किये जायेँ। रोग हो तो वैद्य छोड़कर मूर्ति के पास भागते हैँ। कोई आक्रमण हो तो बाहु-बल को त्याग कर मूर्ति का आश्रय लेते हैँ।


मूर्तियोँ के लिए नित्य झगड़ा-फसाद होता है, लाठियाँ चलती हैँ, मुकद्दमेँ होते हैँ। फिर इसके अतिरिक्त जितने प्रकार के भी मिथ्या विचार (Superstitions) हैँ उनकी जड़ भी मूर्तिपूजा ही है, जो पुरूष पत्थरोँ से डर सकता है वो किससे नहीँ डरेगा? जिसके ह्रदय मेँ झाड़-झंखाड़ के लिए पूज्य बुद्धि हो वह किस जीवित शत्रु का सामना कर सकेगा? फिर हिन्दुओँ का अपने धर्म को छोड़कर अन्य मतो मेँ चले जाने का कारण भी मूर्तिपूजा ही है। हिन्दुओँ मेँ परस्पर कलह का कारण भी मूर्तिपूजा ही है। कही शिवलिँग, कहीँ विष्णु की मूर्ति के कारण एक दूसरे का विरोध है। दक्षिण मेँ वासतोल की मूर्ति ही लिँगायतो और अन्य हिन्दुओँ मेँ शत्रुता का कारण है। शैव और वैष्णव की घोर शत्रुता मेँ कमी भले आयी हो पर आपसी मनमुटाव बरकरार है। दलित और अस्पृश्य जाति के उद्धार मेँ भी उस समय तक विशेष उन्नति न होगी जब तक लोग मूर्तियाँ पूजते रहेगेँ। पण्डे लोग उनका मन्दिरोँ मेँ प्रवेश का घोर विरोध करते हैँ। यदि भयवश प्रवेश दे भी देँ तो बाद मेँ गंगाजल से स्थान शुद्ध करते हैँ। ऐसे बर्ताओँ से वे लोग हिन्दू धर्म का त्याग करने पर विवश हो जाते हैँ। इसीलिए भी स्वामी दयानन्द की तरह स्पष्ट कह दो कि मूर्तिपूजा हटा दी जाय। क्योँकि मूर्तियाँ निर्बलता सिखाती हैँ। और उनके पूजने वाले कभी सबल नही हो सकते। इसीलिए मूर्तिपूजा खण्डन मेँ स्वामी दयानन्द ने भूल नहीँ अपितु विशेष धैर्य तथा प्राबल्य का परिचय दिया है।




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