आधारशक्तिः बृहत् जाबाल उपनिषद् में गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त को ‘आधारशक्ति’ नाम से कहा गया है। इसके दो भाग किए गए हैं - 1. ऊर्ध्वशक्ति या ऊर्ध्वगः ऊपर की ओर खिंचकर जाना, जैसे - अग्नि का ऊपर की ओर जाना: 2. अधःशक्ति या निम्नगः नीचे की ओर खिंचकर जाना, जैसे - जल का नीचे की ओर जाना या पत्थर आदि का नीचे आना। उपनिषद् का कथन है कि यह सारा संसार अग्नि और सोम का समन्वय है। अग्नि की ऊर्ध्वगति है और सोम की अधोःशक्ति। इन दोनों शक्तियों के आकर्षण से ही यह संसार रूका हुआ है।
(क) अग्नीषोमात्मकं जगत्। बृ.जा.उप. 2.4
(ख) आधारशक्त्यावधृतः, कालाग्निरयम् ऊर्ध्वगः। तथैव निम्नगः सोमः। बृ.जा.उप. 2.8
महर्षि पतंजलि (150 ईसा पूर्व) ने व्याकरण महाभाष्य में इस गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त का उल्लेख करते हुए पृथिवी की आकर्षण शक्ति का वर्णन किया है कि - यदि मिट्टी का ढेला ऊपर फेंका जाता है तो वह बाहुवेग को पूरा करने पर, न टेढ़ा जाता है और न ऊपर चढ़ता है। वह पृथिवी का विकार है, इसलिए पृथिवी पर ही आ जाता है।
लोष्ठ क्षिप्तो बाहुवेगं गत्वा नैव तिर्यग् गच्छति,
नोधरवमारोहति। पृथिवीविकारः पृथिवीमेव गच्छति, आन्तर्यतः। महाभाष्य (स्थानेऽन्तरतम, 1.1.49 सूत्र पर)
आकृष्टिशक्तिः भास्कराचार्य द्वितीय (1114 ईस्वी) ने अपने ग्रन्थ सिद्धान्तशिरोमणि में गुरुत्वाकर्षण के लिए आकृष्टिशक्ति शब्द का प्रयोग किया है। भास्कराचार्य का कथन है कि पृथिवी में आकर्षण शक्ति है, अतः वह ऊपर की भारी वस्तु को अपनी ओर खींच लेती है। वह वस्तु पृथिवी पर गिरती हुई सी लगती है। पृथिवी स्वयं सूर्य आदि के आकर्षण से रुकी हुई है, अतः वह निराधार आकाश में स्थित है तथा अपने स्थान से नहीं हटती ओर न गिरती है। वह अपनी कीली पर घूमती है।
आकृष्टिशक्तिश्च मही तया यत् खस्थं गुरुं स्वाभिमुखं स्वशक्त्या।
आकृष्यते तत् पततीव भाति स्मे समन्तात् क्व पतत्वियं खे।। सिद्धान्त. भुवन. 16
वराहमिहिर (476 ई.) ने अपने ग्रन्थ पंचसिद्धान्तिकाऔर श्रीपति (1039 ई.) ने अपने ग्रन्थ सिद्धान्तशेखर में यही भाव प्रकट किया है कि तारासमूहरूपी पंजर में गोल पृथिवी इसी प्रकार रूकी हुई है, जैसे बड़े चुम्बकों के बीच में लोहा।
पंचमहाभूतमयस्तारा - गणपंजरे महीगोलः।
खेऽयस्कान्तान्तःस्थो लोह इवावस्थितो वृत्तः।। पच. पृ. 31
आचार्य श्रीपति का कहना है कि पृथिवी की अन्तरिक्ष में स्थिति उसी प्रकार स्वाभाविक है, जैसे सूर्य में गर्मी, चन्द्र में शीतलता और वायु में गतिशीलता। दो बड़े चुम्बकों के बीच में जैसे लोहे का गोला स्थिर रहता है, उसी प्रकार पृथिवी भी अपनी धुरी पर रूकी हुई है।
(क) उष्णत्वमर्कशिखि शिशिरत्वमिन्दौ,
निर्हेतुरेवमवनेः स्थितिरन्तरिक्षे।। सिद्धान्त. 15.21
(ख) नभस्ययस्कान्तमहामणीनां मध्ये स्थितो लोहगुणो यथास्ते।
आधारशून्योऽपि तथैव सर्वाधारो धरित्र्या ध्रुवमेव गोलः।। सिद्धान्त. 15.22
पिप्पलाद ऋषि (लगाभग 4000 वर्ष ई. पूर्व) ने प्रश्न-उपनिषद् में पृथिवी में आकर्षण शक्ति का उल्लेख किया है। अतएव अपान वायु के द्वारा मल-मूत्र शरीर से नीचे की ओर जाता है। आचार्य शंकर (700-800 ईसा पूर्व) ने प्रश्नोपनिषद् के भाष्य में कहा है कि पृथिवी की आकर्षण शक्ति के द्वारा ही अपान वायु मनुष्य को रोके हुए है, अन्यथा वह आकाश में उड़ जाता।
(क) पायूपस्थे - अपानम्। प्रश्न. उप. 3.5
(ख) पृथिव्यां या देवता सैषा पुरुषस्यापानमवष्टभ्य.। प्रश्न. 3.8
(ग) तथा पृथिव्याम् अभिमानिनी या देवता .. सैषा पुरुषस्य अपान-
वृत्तिम् आकृष्य .. अपकर्षणेन अनुग्रहं कुर्वती वर्तते। अन्यथा
हि शरीरं गुरुत्वात् पतेत् सावकाशे वा उद्गच्छेत्।
शांकर भाष्य, प्रश्न. 3.8
इससे स्पष्ट है कि पृथिवी के गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त भारतीयों को हजारों वर्ष पूर्व से ज्ञात था।
यह उद्धरण उपर्युक्त लेखक की पुस्तक के ज्वार-भाटा अध्याय का है। इसमें भी आकर्षण शक्ति का विधान, उल्लेख व संकेत है। ऋग्वेद में उल्लेख है कि चन्द्रमा के आकर्षण के कारण समुद्र में ज्वार आता है। समुद्री जल के चढ़ाव को ज्वार (Tide) और उतार को भाटा (Ebb) कहते हैं। ज्वार-भाटा का मूल कारण गुरुत्वाकर्षण है। संसार का प्रत्येक पदार्थ दूसरे पदार्थ को अपनी ओर आकृष्ट करता है। प्रत्येक परमाणु (atom) में आकर्षण शक्ति है, अतः वह दूसरे परमाणु को अपनी ओर आकृष्ट करता है। इसी नियम के अनुसार पृथिवी, सूर्य और चन्द्रमा तीनों एक दूसरे को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। इस सिद्धान्त का प्रतिपादन ऋग्वेद में किया गया है संसार में प्रत्येक पदार्थ सदा एक-दूसरे को आकृष्ट करता रहता है।
एको अन्यत् - चकृषे विश्वम् आनुष्क्। ऋग्वेद 1.52.14
इसी नियम के अनुसार सूर्य और चन्द्रमा दोनों पृथिवी को अपनी-अपनी ओर आकर्षित करते हैं। जल तरल है, अतः वह अधिक प्रभावित होता है। अतएव विशेषरुप से पूर्णिमा के दिन समुद्र का जल अधिक ऊपर की ओर चढ़ता है। इसे ज्वार कहते हैं। कुछ समय बाद वह उतरने लगता है। उसे भाटा कहते हैं। यह आकर्षण शक्ति के कारण होता है।
उपर्युक्त उल्लेखों व उदाहरणों से यह सिद्ध है कि सृष्टि के आरम्भ से ही हमारे पूर्वज ऋषियों को पृथिवी व अन्य ग्रहों में आकर्षण शक्ति के गुण-धर्म का ज्ञान रहा है। इसके विपरीत हम विगत दो हजार वर्षों की कालावधि में अस्तित्व में आयीं विभिन्न मत व धर्म की पुस्तकों में पृथिवी के वर्णन को विज्ञान विरूद्ध पाते हैं। आकर्षण शक्ति विषयक सत्य उल्लेखों का उनमें होना तो सम्भव ही नहीं है। इसका कारण यह है विगत 150 से 5000 वर्षों में विश्व में वेद विज्ञान विलुप्त हो गया था और संसार में अज्ञान रूपी अन्धकार छाया हुआ था। इस अज्ञान व अन्धकार को दूर करने का श्रेय उन्नीसवीं शताब्दी के वेदों के पारदर्शी विद्वान महर्षि दयानन्द सरस्वती को है जिन्होंने देश भर के अनेक विद्वानों की संगति कर व यत्र तत्र उपलब्ध वैदिक व इतर साहित्य का अध्ययन कर सत्य ज्ञान व उपासना को प्राप्त किया व उस सम्पूर्ण ज्ञान का मनुष्य व प्राणीमात्र के हित के लिए उसका देश देशान्तर में प्रचार किया।
from Tumblr http://ift.tt/1dBEIDT
via IFTTT
No comments:
Post a Comment