Wednesday, September 5, 2018

नमस्ते जीयंहा हमने ऋषि कणाद के सूत्रों के माध्यम से जाना कि, जो गुण जिस द्रव्य का हो, उसी द्रव्य के...

नमस्ते जी

यंहा हमने ऋषि कणाद के सूत्रों के माध्यम से जाना कि, जो गुण जिस द्रव्य का हो, उसी द्रव्य के आश्रित रहता है; अर्थात जो गुण समवायिकारण से जिस द्रव्य में होगा, उस गुण को जो साधन से ग्रहण किया जाता होगा उसी से ग्रहण होगा और उनके माध्यम से आत्मा अनुभूति कर सकती है, वंहा तक ठीक है, किन्तु *शब्द* को आत्मा के गुण में आरोपित करना व कहना दोष है।

अर्थात यह विपर्यय ज्ञान होने से, हमारा व्यवहार समीचीन न होकर अनुचित होगा जिसका विपाक दुःखों से युक्त होगा।

अतः हमें यथार्थज्ञान प्राप्त करवाने हेतु सूत्रकार महर्षि कणाद ने सूत्र के माध्यम से बताया कि :- *परत्र समवायत् प्रत्यक्षत्वाच्च नात्मगुणों न मनो गुण:।। २६ ।। ( २ - १ )*

अर्थात अन्यत्र समवेत ( एकत्र, संचित ) होने से और प्रत्यक्ष होने से शब्द न तो आत्मा का गुण है; न ही मन का गुण है।

यदि शब्द आत्मा का गुण होता, तो “ मैं सुखी हूँ”, ’ मैं दुःखी हूँ,’ इत्यादि अनुभूतियों के समान ‘मैं बज रहा हूँ,’ 'मैं शब्द वाला हूँ’ इत्यादि अनुभव होता। परन्तु ऐसा अनुभव नही होता; अपितु बाजा बज रहा है, घंटी बज रही है, रेडियो बज रहा है, व्हिसल बज रही है, इत्यादि अनुभव होता है।

यदि शब्द और आत्मा में समवाय होता तो आत्मा की अनुभूति उक्त प्रकार नही होती।

अतः शब्द आत्मा से अन्य द्रव्य में समवेत रहने से आत्मा का गुण नही मानना चाहिए।

यदि शब्द आत्मा का गुण हो, तो बधिर अर्थात जिसकी श्रोत्रन्द्रिय नष्ट हो गई हो ऐसे व्यक्तियों को भी शब्द उपलब्ध होना चाहिए जैसे सुख - दुःख की अनुभूति आत्मा को होती है।

यदि शब्द मन का गुण होता तो उसका प्रत्यक्ष न होता, क्योंकि मन का कोई गुण मन के महत् परिमाण वाला न होने से प्रत्यक्ष नही होता। जबकि *शब्द बाह्यकरण अर्थात बाह्य साधन श्रोत्रन्द्रिय से गृहीत होता है।

सूत्र में महर्षि ने *नात्ममनसोर्गुण:* समासयुक्त पाठ न करके अलग अलग पढ़ने से प्रत्यक्षत्वात् इस तुल्य हेतु से *दिशा* और *काल* में भी शब्द गुण के समवायिकारण का *निषेध* समझना चाहिए।


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