Wednesday, September 5, 2018

नमस्ते जीउक्त आशंका का समाधान के लिए महर्षि भूमिका बांधते है; क्योंकि उक्त द्रव्यों में...

नमस्ते जी

उक्त आशंका का समाधान के लिए महर्षि भूमिका बांधते है; क्योंकि उक्त द्रव्यों में व्याप्य-व्यापक प्रत्यक्षपूर्वक है, इसलिए उन्ही सिद्धान्त से अप्रत्यक्ष गुणी के गुण को जान सकते है।

जो सूत्र के माध्यम से सूत्रकार महर्षि कणाद सिद्धान्त स्वरूप भूमिका में बताते है कि :- *कारणगुणपूर्वक: कार्यगुणो दृष्ट:

अर्थात कारण के गुण के अनुसार कार्य में गुण देखा गया है।

अर्थात कार्यद्रव्य में जो गुण होता है, वह कारण के गुणों के अनुसार होता है। जैसा तंतुओं का होगा, तदनुरूप वस्त्र का वैसा ही होगा। अर्थात वस्त्र के सफेदरूप का समवायिकारण वस्त्र है, असमवायिकारण तन्तुओं का सफेदरूप है।

अर्थात जिस अवयव से अवयवी के रूप में आता है तब अवयवीकार्य का समवायिकारण उनका अवयव और उन अवयवों का संयोग असमवायिकारण होता है शेष सब निमित्तकारण जानना चाहिए।

अर्थात तन्तुकारणगत सफेदरूप कार्य वस्त्र में अपने समानजातीय सफेदरूप का आरम्भक होता है।

यह स्थिति कार्यगुण कारण गुणपूर्वक होती है।

इसव्यवस्था के अनुसार इसके अनुरूप यदि वीणा आदि में श्रुयमाण शब्द ( सुनाई देता हुआ ) कारणगुणपूर्वक माना जाय, तो वीणा आदि के कारण-अवयवों में उसीका समानजातीय शब्द अभिव्यक्त होना चाहिये। पर उन अवयवों में ऐसा शब्द अभिव्यक्त किया जाता अनुभव में नही आता। तात्पर्य यह यदि रूपादि गुणों के समान शब्द पृथिवी आदि चार द्रव्यों में से किसी का गुण होता, तो जैसे कार्यगत रूपादि गुणों के समान कारण में गुण उपलब्ध होते है; वैसे ही वीणा आदि कार्यो में उपलब्ध शब्दगुण के समान ही शब्द वीणा आदि के कारण अवयवों में उपलब्ध होता; अपितु ऐसा नही होता, इसलिए शब्द को स्पर्शवाले पृथिवी आदि चार द्रव्यों में से किसीका गुण नही माना जासक्ता। यह स्पष्ट है वीणा आदि के कारण अवयव शब्द रहित होते हुए वीणा आदि कार्यों के आरम्भक होते है। तब कार्यगुण के कारणगुणपूर्वक होने के नियमानुसार पृथिवी आदि के चार द्रव्यों का लिङ्ग शब्द को नही कहा जासकता।

इसके अतिरिक्त पृथिवी आदि के रूपादि गुण से जब तक कार्यद्रव्य बना रहता है तब तक एक समान उपलब्ध होते है।

जैसे वस्त्र का सफेदरूप जब तक वस्त्र बना रहता है; तब तक एक- सा प्रतीत होते रहता है; उसमें तारतम्य ( विचित्रता ) प्रतीत नही होता। किन्तु वीणा आदि के द्वारा अभिव्यक्त शब्द मन्द, मन्दतर,म मन्दतम तथा तार, तारतर, तारतमरूप में उपलब्ध होता है; यद्यपि वीणागत रूप सदा समान बना रहता है। इससे स्पष्ट होता है, जैसे वीणा आदि का रूप गुण उसका अपना है, ऐसे शब्द गुण उसका अपना नही है।

तब शब्द किसका गुण होसक्ता है, यह अन्वेषण करना चाहिए।


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