Sunday, January 10, 2016

यजुर्वेद १०-८ (10-8) क्ष॒त्रस्योल्व॑मसि क्ष॒त्रस्य॑ ज॒राय्व॑सि क्ष॒त्रस्य॒ योनि॑रसि क्ष॒त्रस्य॒...

यजुर्वेद १०-८ (10-8)

क्ष॒त्रस्योल्व॑मसि क्ष॒त्रस्य॑ ज॒राय्व॑सि क्ष॒त्रस्य॒ योनि॑रसि क्ष॒त्रस्य॒ नाभि॑रसीन्द्र॑स्य॒ वात्र॑घ्नमसी मि॒त्रस्या॑सि॒ वरु॑णस्यासि त्वया॒यँवृ॒त्रँव॑धेत् । दृ॒वासि॑ रु॒जासि॑ क्षु॒मासि॑ । पातैन॒म्प्राञ्च॑म्पातैनम्प्र॒त्यञ्च॑म्पातैन्ति॒र्यञ्च॑न्दि॒ग्भ्यः पा॑त ॥

भावार्थ:- जो कन्या और पुत्रों में स्त्री और पुरूषों में विघया बढ़ाने वाला कर्म है, वही राज्य का बढ़ाने, शत्रुओं का विनाश और धर्म आदि की प्रवृति कराने वाला होता है। इसी कर्म से सब कालों और सब दिशाओं में रक्षा होती है।।

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