यदि इसी जन्म को पहला और अन्तिम जन्म माना जाए ,तो जीवन का कोई अर्थ नहीं रह जाता।यदि हमें यह विश्वास हो जाये कि इस देह के साथ ही एक दिन हमारा(जीवात्मा का) अंत हो जायेगा,तो हमें इस जीवन के साथ क्या लगाव रहेगा?परिणामतः नैतिक मूल्यों का ह्रास होगा।फिर तो सच्चाई,ईमानदारी,न्याय,प्रेम,त्याग आदि की उपेक्षा करके ‘यावत् जीवेत् सुखं जीवेत्’ अर्थात् 'जब तक जियो,सुख से जियो’ के अनुसार ही जीवन बिताना ठीक समझा जायेगा।
अल्पज्ञ होने के कारण जीव से इस जन्म में न जाने कितनी भूलें होंगी पुनर्जन्म न मानने पर उन्हें सुधार कर अपने को पहले से अच्छा बनाने का अवसर ही नहीं रहेगा।एक कक्षा में रहते हुए एक वर्ष में जो पढ़ लिया सो पढ़ लिया।परिक्षा में असफल होने पर दुबारा पढ़ने का अवसर नहीं और सफल होने पर आगे पढ़ने का अवसर नहीं।भला यह कैसा सिद्धान्त और कैसा नियम हुआ कि जहां उन्नति का क्षेत्र ही नहीं।आगे बढ़ने का रास्ता नहीं।
परन्तु हम देखते हैं कि कक्षा में असफल होने पर पुनः परिक्षा देने का अवसर दिया जाता है;उत्तीर्ण होने पर अगली कक्षा में प्रवेश मिल जाता है।
इसी प्रकार मनुष्य का जीवन है।इस जीवन का लक्ष्य इतना महान है कि एक जन्म में उसे प्राप्त कर सकना नितान्त असंभव है।गीता में कहा है कि-जन्म जन्मान्तर के बाद ही मोक्ष की प्राप्ति होती है-
अनेकजन्मसंसिद्धिः ततो याति परमां गतिम् ।।-६/४५)
अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा-“योगसिद्धि के लिए प्रयत्नशील कोई व्यक्ति यदि सिद्धि पाने से पहले ही काल का ग्रास बन जाये तो क्या होगा ?”
श्रीकृष्ण ने समाधान करते हुए कहा कि उसका इस जन्म का पुरुषार्थ व्यर्थ नहीं जायेगा।
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशः तस्य विद्यते ।।-(६/४०)
हे पार्थ ! उस पुरुष का न तो इस लोक में और न परलोक में ही नाश होता है।
आत्मा के अमर होने से उसके इस जन्म के संस्कार ज्यों के त्यों बने रहेंगे और इस जन्म में जहां उसका अभ्यास छूटा है वहाँ से आगे प्रारम्भ करने के लिए उसे फिर अवसर मिलेगा।एक बार की असफलता से निराश नह़ी होनि चाहिये।
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