Friday, January 15, 2016

है󝰼󞰼󝴓३म्🌷🌻🌷 🌷ईश्वर का स्वरुप🌷 अजो न क्षां दाधार पृथिवीं तस्तम्भ द्यां मन्त्रेभिः सत्यैः। प्रिया...

है󝰼󞰼󝴓३म्🌷🌻🌷

🌷ईश्वर का स्वरुप🌷

अजो न क्षां दाधार पृथिवीं तस्तम्भ द्यां मन्त्रेभिः सत्यैः।
प्रिया पदानि पश्वो निपाहि विश्वायुरग्ने गुहा गुहं गाः ।।–(ऋ० १/६७/३)
अर्थ:-जैसे अज अर्थात् न जन्म लेने वाला अजन्मा परमेश्वर न टूटने वाले विचारों से पृथिवी को धारण करता है,विस्तृत अन्तरिक्ष तथा द्यौलोक को रोके हुए है,प्रीतिकारक पदार्थों को देता है,सम्पूर्ण आयु देने वाला,बंधन से सर्वथा छुड़ाता है,बुद्धि में स्थित हुआ वह गोप्य पदार्थ को जानता है,वैसे तू भी हे विद्वान जीव!हमें प्राप्तव्य की प्राप्ति करा।

प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा विजायते ।
तस्य योनि परिपश्यन्ति धीरास्तस्मिन् ह तस्थुर्भुवनानि विश्वा ।।-(यजु० ३१/१९)
अर्थ:-अपने स्वरुप से उत्पन्न न होने वाला अजन्मा परमेश्वर,गर्भस्थ जीवात्मा और सबके ह्रदय में विचरता है और उसके स्वरुप को धीर लोग सब और देखते हैं।उसमें सब लोक लोकान्तर स्थित है।

ब्रह्म वा अजः ।-(शतपथ० ६/४/४/१५)
ब्रह्म ही अजन्मा है।

उपनिषदों में भी परमात्मा को स्थान-स्थान पर अजन्मा वर्णन किया है–

वेदाहमेतमजरं पुराणं सर्वात्मानं सर्वगतं विभुत्वात् ।
जन्मनिरोधं प्रवदन्ति यस्य ब्रह्मवादिनो प्रवदन्ति नित्यम् ।।-(श्वेता० ३/२१)

मैं उस ब्रह्म को जानता हूं जो पुराना है और अजर है।
सबका आत्मा और विभु होने से सर्वगत है।ब्रह्मवादी जिसके जन्म का अभाव बतलाते हैं क्योंकि वह नित्य है।

एकधैवानुद्रष्टव्यमेतदप्रमेयं ध्रुवम् ।
विरजः पर आकाशदजं आत्मा महान् ध्रुवः ।।-(बृहरदार० ४/४/२०)
अर्थ-इस अविनाशी अप्रमेय ब्रह्म को एक ही प्रकार से देखना चाहिये,वह मल से रहित,आकाश से परे,जन्म-रहित आत्मा महान और अविनाशी है।

दिव्यो ह्यमूर्त्तः पुरुषः स बाह्याभ्यन्तरो ह्यजः ।
अप्राणो ह्यमनाः शुभ्रो ह्यक्षरात् परतः परः ।।-(मुण्ड० २/२)
अर्थ:-वह दिव्य पुरुष(परमात्मा) बिना मूर्ति के है,बाहर और अन्दर दोनों जगह विद्यमान है।बिना प्राण और मन के है।शुभ्र है और अव्यक्त प्रकृति के परे है।

अजं ध्रुवं सर्वतत्त्वैर्विशुद्धं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः ।।-(श्वेता० २/१५)
अजन्मा,ध्रुव,सारे तत्त्वों से अलग परमात्मदेव को ब्रह्मतत्त्वदर्शी जानकर पाशों से छूट जाते हैं।

स वा एष महानज आत्माsजरोsमरोsमृतोsभयं ब्रह्म ।-(बृह० ४/४/२५)
अर्थ:-वह महान् अजन्मा आत्मा,अजर,अमर,अभय,अमृत ब्रह्म है।

दर्शनशास्त्र भी परमात्मा को अजन्मा ही बताते हैं:-

उत्पत्त्यसंभवात् ।-वेदान्त० २/२/३९)
ईश्वर के जन्म का असंभव पाये जाने से उसका कोई कर्त्ता नहीं।

न च कर्त्तुः करणम्।-(वेदान्त० २/२/४०)
और न उस कर्त्ता परमात्मा का कोई करण इन्द्रियादि है।

करणवच्चेन्न भोगादिभ्यः ।-(वेदा० २/२/३७)
अर्थात् लोकदृष्टि के अनुसार परमात्मा का भी इन्द्रियों का अधिष्ठान यदि शरीर मानें तो ठीक नहीं,क्योंकि ईश्वर के शरीर वा इन्द्रियादि मानने से उसे भी संसारी जीवों की तरह सुख-दुःख-भोक्ता मानना पड़ेगा और ऐसा मानने से ईश्वर भी अनीश्वर हो जायेगा।

उपनिषदों के और उद्वरण देखिये:-

अशरीरं शरीरेषु अनवस्थेष्ववस्थितम् ।
महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति ।।-(कठोप० १/२/२२)

वह परमात्मा लोगों के शरीर में रहते हुए भी स्वयं शरीर-रहित है।बदलने वाली वस्तुओं में एकरस(न बदलने वाला) है।उस महान् विभु आत्मा को जानकर धीर पुरुष शोकमुक्त हो जाता है।

अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथाsरसं नित्यमगन्धवच्च यत् ।
अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं निचाय्य तं मृत्युमुखात्प्रमुच्यते ।।-(कठ० ३/१५)
अर्थ:-वह ब्रह्म शब्द नहीं,स्पर्श नहीं,रुप नहीं,इस प्रकार रस नहीं और न गन्ध वाला है।वह अविनाशी,सदा एकरस रहने वाला,अनुत्पन्न,सीमा-रहित महत्तत्व से भी सूक्ष्म,अचल है।उसको निश्चयात्मक रीति से जानकर मनुष्य मौत के मुख से छूट जाता है।

अणोरणीयान् महतोमहीयानात्मास्य जन्तोर्निहितो गुहायाम् ।
तमक्रतुः पश्यति वीतशोको धातुः प्रसादान्महिमानमात्मनः ।।-(कठ० 2/20)
अर्थ:-ब्रह्म सूक्ष्म से भी अत्यन्त सूक्ष्म है,बड़े से भी बड़ा है।वह प्राणी के ह्रदयाकाश में स्थित है।उसकी महिमा को बुद्धि के निर्मल होने से निष्काम शोक रहित प्राणी देखता है।

इन्द्रियेभ्यः परं मनो मनसः सत्त्वमुत्तमम् ।
सत्त्वादपि महानात्मा महतोsव्यक्तमुत्तमम् ।।-(कठ० 6/7)
अव्यक्तातु परः पुरुषो व्यापकौsलिंग एव च ।
यज्ज्ञात्वा मुच्यतेजन्तुरमृतत्वं च गच्छति ।।-(कठ० 6/8)

अर्थ:-इन्द्रियों से मन सूक्ष्म है,मन से सूक्ष्म अहंकार है।अहंकार से भी सूक्ष्म महत्तत्व है तथा महत्तत्व से भी सूक्ष्म प्रकृति और जीवात्मा है।जीव और प्रकृति से भी सूक्ष्म परमात्मा है जोकि व्यापक और चिन्ह आदि से रहित निराकार है,जिसको जानकर मनुष्य दुःखों से छूट जाता है और अमृतत्व को प्राप्त होता है।

न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुषा पश्यति कच्श्रनैनम् ।
ह्रदा मनीषा मनसाभिक्लृप्तो य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति ।।-(कठ० 6/9)
इस ब्रह्म का कोई रुप सामने नहीं है और न आँखों से इसे कोई देख सकता है।यह ह्रदय,मन तथा बुद्धि से ज्ञात होता है।जो लोग इसे जानते हैं वे अमृत हो जाते हैं।

यत्तदद्रेश्यमग्राह्यमगोत्रमवर्णमचक्षुः श्रोत्रं तदपाणिपादम् ।
नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्मं तद्भूतयोनिं परिपश्यन्ति धीराः ।।-(मु० 1/1/6)
अर्थ:-जो परमात्मा न देखा जाता है,न पकड़ा जाता है,जिसका कोई गोत्र नहीं,वर्ण नहीं,जिसके न नेत्र हैं,न श्रोत्र,न हाथ,न पाँव हैं,वह नित्य है,व्यापक है,सर्वगत है और बड़ा सूक्ष्म तथा अव्यय है।उसी जगत के निमित्त-कारण ब्रह्म को धीर पुरुष सर्वत्र देखते हैं।

न चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा नान्यैर्देवैस्तपसा कर्मणा वा ।
ज्ञानप्रसादेन विशुद्धसत्त्वस्ततस्तु तं पश्यते निष्कलं ध्यायमानः ।।-(मुं० 3/1/8)
वह ब्रह्म आँख से ग्रहण नहीं किया जाता।उसे न वाणी से,न अन्य इन्द्रियों से,न तप से और न कर्म से ग्रहण किया जा सकता है।अपितु ज्ञान की महिमा से शुद्ध अन्तःकरणवाला होकर ध्यान करता हुआ ही उस कला-रहित ब्रह्म को देख सकता है।

अपाणिपादो जवनो गृहीता पश्यत्यचक्षुः स श्रृणोत्यकर्णः ।
स वेत्ति वेद्य न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तम् ।।-(श्वेता० 3/19)
अर्थ:-वह बिना हाथ के सबका ग्रहण करने वाला तथा बिना पाँव के वेगवाला है।बिना नेत्र के देखता और बिना कान के सुनता है।वह हर एक जानने योग्य वस्तु को जानता है,पर उसका अंत जानने वाला कोई नहीं।ज्ञानी लोग उसको मुख्य महान् पुरुष कहते हैं।

सूक्ष्मातिसूक्ष्मं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य स्रष्टारमनेकरूपम् ।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा शिवं शान्तिमत्यन्तमेति ।।-(श्वेता० 4/14)
अर्थ:-वह ईश्वर सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है।वह इस जगत और उसके प्रत्येक पदार्थ में व्यापक है।उसी ने इस विश्व और इसके रुप वाले पदार्थों को रचा है।वह सारे संसार को घेरे हुए है।उसी कल्याण स्वरुप प्रभु को जानकर मनुष्य अत्यन्त शान्ति को प्राप्त होता है।

न तस्य कार्यं करणं च विद्यते न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते ।
पराSस्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च ।।-(श्वेता० 6/8)
उसका कोई कार्य नहीं,उसके इन्द्रियादि करण नहीं।न कोई उसके समान और न कोई उससे अधिक है।उसकी शक्ति सबसे महान है।उसमें ज्ञान,बल और कार्य करने की शक्ति स्वभाव से है।

न तस्य कश्चित्पतिरस्ति लोके न चेशिता नैव च तस्य लिंगम् ।
स कारणं करणाधिपाधिपो न चास्य कश्चिज्जनिता न चाधिपः ।।-(श्वेता० 6/9)
अर्थ:-लोक में कोई उस परमात्मा का स्वामी नहीं,न उस पर कोई शासन करने वाला है और न उसका कोई चिन्ह है।वह जगत का निमित्त कारण है।वह इन्द्रियों के स्वामी जीवात्माओं का भी स्वामी है।वह न किसी से उत्पन्न हुआ है और न उसका कोई स्वामी है।

उपर्युक्त समस्त उपनिषद वाक्य जहाँ परमात्मा को सुस्पष्ट रुप में निराकार वर्णन करते हैं,वहाँ यह भी बताते हैं कि उसे शुद्ध अन्तःकरण से ध्यान द्वारा ही जीवात्मा में ग्रहण किया जाता है।

एकेश्वरवाद के वेद के मन्त्र देखिये:-

इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यं स सुपर्णो गरुत्मान् ।
एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः ।।-(ऋग्० 1/164/46)
अर्थ:-एक सद् परमात्मा को इन्द्र,मित्र,वरुण,अग्नि,दिव्य,सुपर्ण,गरुत्मान,यम तथा मातरिश्वा आदि नाम देते हैं,अर्थात् इन नामों से उस एक ही प्रभु का वर्णन होता है।

यजुर्वेद में ईश्वर को अग्नि,वायु,आदित्य,चन्द्रमा तथा शुक्र आदि कहा गया है:-
तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः ।
तदेव शुक्रं तद् ताs आपः स प्रजापतिः ।।-( यजु० 32/1)
अग्नि,आदित्य,वायु,चन्द्रमा,शुक्र,ब्रह्म,आपः,प्रजापति इन शब्दों द्वारा परमात्मशक्ति का बोध होता है,अर्थात् प्रकाशस्वरुप होने से उस परमात्मा का नाम अग्नि,कभी विनाश न होने से आदित्य,जगत का धारण तथा जीवन होने से वायु,आनन्दस्वरुप होने से चन्द्रमा,अत्यन्त पवित्र होने से शुक्र,सबसे बड़ा होने से ब्रह्म तथा प्रजा का पालन करने से प्रजापति है।

परमात्मा एक ही है।अथर्ववेद के काण्ड 13,प्र० 5 के मंत्र हैं:-

न द्वितीयो न तृतीयश्चतुर्थो नाप्युच्यते । 16 ।।
न पंचमो न षष्ठः सप्तमो नाप्युच्यते ।17 ।।
नाष्टमो न नवमो दशमो नाप्युच्यते । 18 ।।

अर्थ:-ईश्वर न दूसरा है,न तीसरा है,न ही चौथा कहलाता है। 16 ।।
न पाँचवाँ है,न छठा है,न सातवाँ ही कहलाता है। 17 ।।
न आठवाँ है,न नवाँ है,न ही दसवाँ कहलाता है। 18 ।।

तमिदं निगतं सहः स एष एक एकवृदेक एव ।-(अथर्व० 13/20)
अर्थ:-वह सर्वशक्ति है,वह एक है,एकवृत और एक है।


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