आर्य सन्यासी एवं महान दर्शनाचार्य- स्वामी विवेकानंद परिव्राजक जी का जीव ब्रह्म का अंश नहीं है पर प्रवचन का कुछ अंश….अवश्य श्रवण करें
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-डा मुमुक्षु आर्य
अद्वैतमत खण्डन ( जीव ब्रह्म का अंश नहीं) –भाग २
जीवात्मा, परमात्मा और प्रकृति– ये तीन तत्व नित्य हैं, शाश्वत हैं ,eternal हैं- न इनका आदि है; न अंत है। न इनको कोई पैदा करने वाला है, न मारने वाला है। ये हमेशा से है; अब भी हैं और आगे भी रहेगें। विज्ञान भी कहता है- matter can neither be created nor can be destroyed by any physical or chemical means अर्थात प्रकृति (matter) को किसी भी भौतिक व रासायनिक क्रिया द्वारा न तो बनाआ जा सकता है और न ही बिगाडा जा सकता है अर्थात वह अनादि है- जैसे प्रकृति अनादि है वैसे ही आत्मा व परमात्मा भी अनादि हैं | इस प्रकृति में अपनी कोई चेतन शक्ति नहीं है। यह तो जगत निर्माण में साजो-सामान रूपी उपकरण का कार्य करती है, उसका उपादान कारण है जबकि परमेश्वर सृष्टि का निमित्त कारण है।
ईश्वर जीव प्रकृति-ये तीन तत्व अनादि हैं- यही वैज्ञानिक व वेदानुकूल त्रैतवाद का सिद्धान्त है | प्रकृति व प्रकृति से बने सब पदार्थों में जो शक्ति व गति दिखाई दे रही है वह सब ब्रह्मा अर्थात परमात्मा की ही दी हुई है- इसके लिए एक बहुत अच्छा उदारहण हमारे उपनिषदों में आया है।। कहते हैँ कि एक बार असुरों और देवताओं में युद्ध छिड़ गया; जिसमें देवताओं की विजय हुई।। और वे देवता अभिमान वश होकर कहने लगें कि हमनें असुरों को हराया है।। उनके इस अहंकार को परमेश्वर ने पहचान लिया; क्योंकि उससे तो कुछ भी छिपा हुआ नहीं है। तो वह परमेश्वर एक यक्ष का रूप लेकर उनसे कुछ दूरी पर जाकर खड़ा हो गया। तब देवताओं का राजा इंद्र अग्निदेव को कहता है कि उसके पास जाओ और पता करो कि ये कौन है? अग्निदेव उस यक्ष के पास दौड़ कर जाता है । जैसे ही वहाँ पहुँचता है तो यक्ष उससे परिचय जानकर कहता है कि तुम अग्नि देव में क्या सामर्थ्य है; तुम क्या कर सकते हो ? अग्नि देव ने कहा कि मैं पल भर में सब कुछ जला कर भस्म कर सकता हूँ। यक्ष कहता है कि ; अच्छा! ये सुखा तिनका जला कर दिखाओ। अग्निदेव ने अपना सारा बल लगाया पर उस सूखे तिनके को जला न सका। वह घबरा गया, दौड़ कर वापिस इंद्र देवता के पास गया और कहा,“ मैं उसको जान नही सका; उसने तो मेरा सारा बल ही हर लिया। इसी प्रकार वायु देवता ने सारा बल लगा दिया; परन्तु एक सूखे तिनके को उड़ा न सका; उसका भी बल उस यक्ष ने हर लिया। अंत में उमा देवी ने इन देवताओं को बताया कि तुम अपनी जीत में अंहकार वश अपना बल देख रहे थे; यह बल किसका है-यह बताने के लिए स्वयं प्रभु एक यक्ष का रूप लेकर तुम्हारे सामने आये थे। अर्थात ये जो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्र, सूर्य आदि व ब्रह्माण्ड सब कुछ जो हमें कार्य करते नज़र आ रहे है; ये इनका अपना बल नहीं है; यह सब प्रभु की शक्ति लेकर ही नियमानुसार कार्य कर रहे हैं।
इसी प्रकार हमारा ये स्थूल शरीर ही मरता है; इसमें रहने वाली आत्मा कभी मरती नहीं है।। इस मरणशील शरीर में रहते हुए अमर आत्मा को अमर परमात्मा में रमण कराना ही उस परमेश्वर की "उपासना” है, पूजा है; क्योंकि वह परमात्मा कण-कण में विराजमान है। परन्तु उसे हम इन नंगी आँखों से नही देख सकते। प्रकृति का स्थूल रूप तो देख सकते है; पर उसमें व स्थूल शरीर में विचरने वाली चेतन-शक्ति को नहीं देख सकते।। तो फिर उस चेतन- शक्ति को देखने के लिए हम अष्टांग योग के अभ्यास द्वारा अपनी इन्द्रियों, मन, बुद्धि की गति को आंतरिक करते हैं और इस शरीर को चलाने वाली चेतन-शक्ति का मस्तिष्क या हृदयदेश में साक्षात् दर्शन करते हैं और कह उठते हैं कि,“उपासना योग के अभ्यास में हम मरणशील मनुष्य उस अमर– कभी न मरने वाले परमेश्वर की ही पूजा करते है; जो परमेश्वर प्रत्येक मनुष्य के अंदर यजनीय है पूज्यनीय है।”
,“आज के अद्वैतवादी नवीन वेदान्ती वेद के कपोल-कल्पित अर्थ निकाल कर जगत की हानि कर रहे हैं तथा मनुष्यों को हठ- अभिमान आदि दोषों में डाल कर उन्हें दुःख सागर में डूबा देते हैं। अज्ञानी लोग इनके उपदेश जाल में फंस के क्लेश पाते हैं। बन्धनों में बंधे रहते है। ये क्या मानते हैं-
1. जीव को ही ब्रह्म मानते हैं !
2. स्वयं पाप करें और कहें कि हम अकर्ता हैं !
3. जगत को मिथ्या बताते हैं !
4. मोक्ष में जीव का लय मानते हैं !
इनकी ये सब बातें गलत हैं कपोल कल्पित हैं-
समीक्षा – जीव ही ब्रह्मा है –इसके लिए यह इस वाक्य का प्रमाण देते हैं कि,” प्रज्ञानमानंदम ब्रह्म"— इसको ऋग्वेद का वाक्य कहते हैं। परन्तु ऋग्वेद के आठों अष्टकों में यह वाक्य कहीँ भी नहीं है। किन्तु ऋग्वेद का व्याख्यान “ऐतरेय ब्राह्मण” में यह वाक्य है। उसमें ऐसा पाठ है ,“ प्रज्ञानं ब्रह्म”-अर्थात जिसमें प्रकृष्ट सर्वोत्तम अनन्त ज्ञान है; वह “प्रज्ञान” कहलाता है। -अर्थात जिसको कभी भी अविद्या अज्ञान का अंधकार से लेशमात्र का भी सम्बन्ध नहीं होता; न हुआ और न होगा। “ब्रह्म”-जो सबसे वृद्ध (बड़ा) है और सब जगत को बढ़ाने वाला है; स्वभक्तों को अनन्त मोक्ष सुख से अनन्त आनंद में बढ़ाने वाला है तथा बड़े सुख का देने वाला है— अतः “ब्रह्म” नाम परमात्मा का है। क्योंकि यही परमात्मा का स्वभाव और स्वरूप है। (अतः जीव कभी भी इन लक्षणों वाला नहीं हो सकता)- नवीन वेदान्तियों ने इस वाक्य का नाम “महावाक्य” रखा है। जो अप्रमाण है। क्योंकि किसी ऋषि कृत ग्रन्थ में इसका “महावाक्य” नाम नहीं लिखा है।
,“अहं ब्रह्मास्मि”–वेदान्ती लोग इसका अर्थ करते हैं कि ,“मैं ब्रह्म हूँ” अर्थात भ्रान्ति से मैं जीव बना था; सो अब मैंने जान लिया कि मैं तो साक्षात् ब्रह्म हूँ-यह अनर्थ है, यह अर्थ इनका बिलकुल खोटा है।। क्योंकि पहले के ग्रन्थ का सम्बन्ध देखें बिना चोर की तरह बीच में से एक टुकड़ा लेके अपना मतलब सिद्ध करके अपनी स्वार्थ पूर्ति की है।। देखो इस वचन का पूर्व का सम्बन्ध इस प्रकार है:-,“शतपथ ब्राह्मण: कांड 14: प्रपाठक 3: ब्राह्मण2: कण्डिका 18से 22,” अर्थ,“ सब जीव "परमेश्वर” की उपासना करें और किसी की नहीं। क्योंकि सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यामी जो परब्रह्म है; वह सबसे प्रियस्वरूप है-अर्थात सबसे प्रिय इस परमेश्वर को जानना। पुत्र, धन तथा सब जगत के सत्य पदार्थो से वही ब्रह्म (परमेश्वर) प्रियतर है।(सबसे प्रिय है) तथा अन्तरतर आत्मा का अंतर्यामी परमात्मा है; जोकि अपने सबों का आत्मा है। जो कोई इस आत्मा से अन्य को प्रिय कहता है उसके प्रति यह कहे कि,“ परमात्मा से अन्य को तू प्रिय बतलाता है सो तू दुःख के सागर में गिर के सदा रोवेगा और जो कोई परमात्मा को छोड़ के अन्य की उपासना व प्रीति करेगा; सो सदा रोवेगा और जो पत्थर आदि जड़ पदार्थो की उपासना करेगा; सो रोवेगा।
हे मनुष्यों! वह परमेश्वर एक ही है। दो नहीँ है। यह जो हमारे शास्त्र- पुराणों आदि में अनेक परमेश्वर का वर्णन आता है; वह अनेक नहीँ है; एक ही है। मनुष्यों ने उस परमेश्वर की अनेक शक्तियों को देख कर; अनुभूत करके उसके अनेक नाम रख दिए। परमात्मा तो एक ही है; उसकी शक्तियों के अनुसार ऋषियों ने साधारण बुद्धि के मनुष्यों को समझाने के लिए अलग-अलग नाम रख दीये।। और उन साधारण बुद्धि के लोगों ने उन नामों के प्रतीक(मूर्ति) बना कर पूजा करनी शुरू कर दी; जो कि उनकी अज्ञानता ही है। परमात्मा अलग-अलग नहीं है; वह एक ही है। जैसे परमात्मा की एक शक्ति सृष्टि व जीवों के सर्जन का कार्य करती है-मनुष्यों ने इस शक्ति का नाम "ब्रह्मा” रख दिया और उसका प्रतीक बना कर उसकी पूजा करने लगे। परमात्मा की एक शक्ति सृष्टि-जीवों का पालन- पोषण करती है। मनुष्यों ने इस शक्ति का नाम “विष्णु” रख दिया; और उसका प्रतीक (मूर्ति) बना कर उसकी पूजा करने लगे। परमात्मा की एक शक्ति सृष्टि-जीवों के शरीरों का नाश करने का कार्य करती है। मनुष्यों ने उसका नाम “शिव” रख दिया। और प्रतीक बना कर पूजा करने लगे। परमेश्वर की मानसिक शक्ति को “इंद्र” नाम देकर पूजने लगे और सब देवताओं का सरदार कहने लगे। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्र, सूर्य, ब्रह्माण्ड के अन्य ग्रह आदि सबमें परमात्मा की शक्ति है; परन्तु इनको इनके गुण-कर्म की शक्ति से जानने लगे। जबकि परमात्मा एक ही है; उसके गुण-कर्म शक्तियों के अनुसार उस एक ही परमात्मा के नाम अलग हो गए है। यह एक परमात्मा ही सभी जीव-जगत का सर्वदृष्टा है। वह सभी को हर क्षण देखता रहता है और वह सर्वशक्तिमान है। यह सब जीव-जगत-मनुष्य आदि मिल कर एक हो जाये तो भी उसकी एक शक्ति का भी मुकाबला नहीं कर सकते।। वह सबका सर्वद्रष्टा और सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही सबका पालक हुआ है। उसको पता है कि किस समय किसको क्या देना है; क्या नहीं देना है। उसके बिना इस जगत में एक पत्ता भी नहीं हिलता है। हे मनुष्यों! ऐसे परमेश्वर को तुम अपने शरीर के अंदर “अष्टांग योग ” अभ्यास से हृदयदेश में साक्षात देख- वहाँ उसकी ही स्तुति; उपासना कर
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