Saturday, February 20, 2016

● महर्षि दयानन्द जी ने किया - लगातार नव घंटे संस्कृत में शास्त्रार्थ...

● महर्षि दयानन्द जी ने किया - लगातार नव घंटे संस्कृत में शास्त्रार्थ ●
———————————-
- प्रस्तुतकर्ता : भावेश मेरजा (16.02.2016)

चिन्तनीय बातें :

● ‘सत्यमेव जयति’ अपने आप नहीं होता है, प्रत्युत सत्य को भी पुरुषार्थ पूर्वक जिताना पड़ता है ।

● सुयोग्य - सुपात्र व्यक्ति से शास्त्र-चर्चा करने में समय लगाना फलदायक रहता है - इसका उदाहरण है यह शास्त्रार्थ ।

● अद्वैतवाद - नवीन वेदान्त के अन्धकार को दूर करने के लिए महर्षि ने दो ग्रन्थ लिखें - 1. 'अद्वैत मत खण्डन’ और 2. 'वेदान्ति ध्वान्त निवारण’ । प्रथम ग्रन्थ अप्राप्य है । 'वेदान्ति ध्वान्त निवारण’ के अन्त में महर्षि ने अद्वैत मत को मानने से होने वाली हानियों का वर्णन किया है ।

● महर्षि ने सत्यार्थप्रकाश में 7-8-9 और 11 - इन चार समुल्लासों में नवीन वेदान्त का खण्डन किया है । सत्यार्थप्रकाश में इतना विस्तार से खण्डन तो मूर्तिपूजा का भी नहीं किया गया है । नवीन वेदान्तियों की गणना उन्होंने नास्तिकों की कोटि में की है ।

● अपने आरम्भिक काल में दयानन्द जी भी कुछ काल पर्यन्त अद्वैतवादी रहे थे । परन्तु कालान्तर में पंचदशी नामक वेदान्ती पुस्तक को पढ़कर वे सावधान हो गए और तुरन्त ही उन्होंने पंचदशी की कथा करना बन्द कर दिया । आगे चलकर वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन व मनन से उन्होंने ज्ञान आलोक प्राप्त किया और ईश्वर-जीव-प्रकृति रूपी तीन अनादि मूल सत्ताओं को मान्य कर वैदिक त्रैतवाद के प्रवर्त्तक बनें ।

● निम्नलिखित शास्त्रार्थ को पढ़ने से हम इस बात का अनुमान कर सकते हैं कि अविद्या-अन्धकार को दूर करने के लिए महर्षि ने कितना पुरुषार्थ किया होगा ।

● शास्त्रार्थ का विवरण ●
———————————

1879 ई० (सम्वत् 1936 वि०) में आयोजित हरिद्वार का कुम्भ मेला चल रहा है । आर्य समाज के प्रवर्त्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने यहाँ अपना डेरा लगाया है । उनका वेद धर्म का मण्डन और पाखण्ड मत का खण्डन कार्यक्रम सर्वात्मना चल रहा है । एक दिन प्रातः काल लगभग 6.30 बजे अकस्मात् एक वृद्ध संन्यासी महात्मा महर्षि के डेरे की ओर आते हुए दिखाई देते हैं । उनकी आयु 80 वर्ष से कम नहीं है, परन्तु शरीर स्वस्थ और बलिष्ठ है । उनके चेहरे पर ओज और तेज है । कफ़नी पहनी है और शिर मुंडाया हुआ है । नाम है - आनन्दवन । उनके साथ उन्हीं की आकृति के उनके 10-12 शिष्य भी हैं । महर्षि ने उन्हें दूर से ही अपने डेरे की तरफ आते हुए देख लिया था । अत: डेरे के द्वार पर जाकर महर्षि ने सस्मित उनका स्वागत किया और भीतर ले जाकर उन्हें सम्मानपूर्वक गद्दी पर बिठलाया । आनन्दवन जी नवीन वेदान्ती हैं, शांकर मतानुयायी हैं, एक मात्र ब्रह्म को ही सत्य मानते हैं । उनकी दृष्टि में जीव और ब्रह्म एक ही है, अभिन्न है और यह जगत् मिथ्या है । दोनों संन्यासी महानुभाव बैठते ही मुस्कराते हुए शास्त्रार्थ में प्रवृत्त हुए । दोनों संस्कृत में ही वार्तालाप कर रहे हैं । जीव-ब्रह्म की अभिन्नता और 'अहं ब्रह्मास्मि’ इत्यादि तथाकथित 'महावाक्यों’ के सत्यार्थ को लेकर गम्भीरता पूर्वक वाद चल रहा है । 6.30 बजे आरम्भ हुआ है यह वार्तालाप, परन्तु अब तो 11 बज गया है । भोजन के लिए योगी सन्तनाथ सूचना देने आए । महर्षि ने आनन्दवन जी और उनके शिष्यों को भोजन ग्रहण करने की विनती की । परन्तु आनन्दवन जी ने कहा कि जब तक इन प्रश्नों का निर्णय न हो जाएगा तब तक मैं भोजन नहीं करूँगा । भोजन किए बिना ही शास्त्रालाप पुनः अविरत चलने लगा । महर्षि ने चारों वेद एवं अन्य 60-65 ग्रन्थ अपनी सन्दूकों से निकलवाएं और उनमें से अनेक प्रमाण-वाक्य आनन्दवन जी को दिखलाने लगे । दो बजे तक यही क्रम चलता रहा । दो बजे के पश्चात् दोनों उठ खड़े हुए और परस्पर कुछ बातें करने लगे । महर्षि के वेदशास्त्र अनुमोदित एवं युक्तिपूर्ण पक्ष को सुनकर अब आनन्दवन जी को समाधान प्राप्त हो गया था । उन्होंने खड़े होकर अपने प्रिय शिष्यों को सम्बोधित करते हुए कहा - मैंने दयानन्द जी के मत को स्वीकार कर लिया है । मैं आज पर्यन्त अद्वैत मतानुयायी था, मगर आज दयानन्द जी के दार्शनिक मत को मैंने हृदयंगम कर लिया है । वेदान्त का वास्तविक स्वरुप आज मेरी समझ में आ गया है । मेरे संशय निवृत्त हो गए हैं । मेरा मिथ्या ब्रह्मवाद उड़ गया है । इसलिए हे मेरे शिष्यों, अब आपको भी ऐसा ही करना उचित है । इस वक्तव्य के पश्चात् आनन्दवन जी बिना भोजन किए ही चले गए । उसके पश्चात् भी वे कभी-कभी सभा-मण्डप में आते रहते थे, परन्तु कभी बैठे नहीं । मुस्कराकर आनन्द से थोड़ी देर खड़े रहकर चले जाते थे । शास्त्रार्थ वाले दिन किसी के पूछने पर महर्षि ने उनके सम्बन्ध में कहा था कि - यह बड़े विद्वान् संन्यासी हैं । अब तक वे जीव-ब्रह्म को एक मानते थे, परन्तु अब हमारे समान जीव और ब्रह्म को पृथक्-पृथक् मानने लगे हैं ।

(महर्षि दयानन्द जी के प्रामाणिक जीवनचरित्रों से संकलित)
●●●


from Tumblr http://ift.tt/1SH3kgL
via IFTTT

No comments:

Post a Comment