आश्विन शुक्ल ६ वि.सं.२०७२ १९ अक्टूबर २०१५
😶 “ मायावी की माया द्वारा ही उसका नाश ! ” 🌞
🔥🔥 ओ३म् मायाभिरिन्द्र मायिनं त्वं शुष्णमवातिर:। 🔥🔥
🍃🍂 विदुष्टे तस्य मेधिरास्तेषां श्रवांस्युत्तिर।। 🍂🍃
ऋ० १ । ११ । ७
ऋषि:- जेता माधुच्छन्दस: ।। देवता- इन्द्र: ।। छन्द:- विराडनुष्टुप्।।
शब्दार्थ- हे परमेश्वर!
तुम मायावाले, बड़े कपटी शोषण करनेवाले राक्षस को मायाओं द्वारा ही नीचे कर देते हो, विनष्ट कर देते हो। तुम्हारे उस रहस्य को मेधावाले ज्ञानी लोग ही समझते हैं, तुम अब उनके अत्रों को, सत्त्वों को, यशों को ऊँचा कर दो, उनका उद्धार कर दो।
विनय:- हे परमेश्वर!
तेरे इस संसार में शुष्ण असुर भी उत्पत्र हुआ करता है। यह वह मनुष्य व मनुष्यसमुह होता है जो दूसरों के शोषण पर, चूसने पर अपना निर्वाह करता है। यह बड़ा मायावी होता है। यह दूसरों के रक्त का शोषण बड़ी गहरी माया से, बड़े छल-कपट से करता है।यह ऐसे प्रबन्ध से काम करता है, ऐसा ढंग रचता है कि हमें अपना कुछ भी अनिष्ट होता हुआ पता नहीं लगता, किन्तु चुपके-चुपके हमारे सब सत्त्व, सब विद्या, सब सम्पत्ति का अपहरण होता चला जाता है। इसकी माया के अच्छी प्रकार फैल जाने पर तो यह अवस्था आ जाती है कि इस शुष्ण असुर के शिकार हुए लोग ऐसे मुग्ध हो जाते हैं कि वे स्वेच्छा से, प्रसन्नता से, अपने को चुसवाते, शोषित करवाते जाते हैं, परन्तु हे इन्द्र! तू इस मायावी महा-असुर को मायाओं द्वारा ही विनष्ट कर देता है। तेरा जगद्विधान इतना सच्चा और परिपूर्ण है कि इसमें माया की अपने-आप प्रतिक्रिया होती है, माया अपनी प्रतिद्वन्दी माया को पैदा कर अपना आत्मघात कर लेती है। चालें चलनेवाला आखिर अपनी चालों में ही मार जाता है। तेरी सच्ची माया (प्रज्ञा) के सामने शुष्ण की झूठी माया विलीन हो जाती है, पर तेरे इस सृष्टि के रहस्य को, तेरे इस सामर्थ्य को, विरले मेधावाले ज्ञानीजन ही जानते हैं। शेष साधारण लोगों को तो जब इस भयंकर शोषण का पता लगता है तो वे घबरा उठते हैं और समझने लगते हैं कि इस संसार में कोई इन्द्र नहीं, परमेश्वर नहीं, कोई गरीबों की आह सुननेवाला नहीं, किन्तु ये ‘मेधिर’ लोग श्रद्धा-भरी आँखों से तेरी ओर देखते हुए अपना काम करते जाते हैं, पर हे इन्द्र! अब तो बहुत देर हो चुकी, शुष्ण राक्षस का उपद्रव पराकाष्ठ को पहुँच चुका। ये देखो चुसते-चुसते अब यहाँ क्या बचा है? ये देखो, मेधावी लोग अब एकमात्र तुम्हारी ओर टकटकी लगाये देख रहे हैं। अब तो तुम छिनते जाते गरीबों के पेट के अन्नों का उद्धार कर दो, नष्ट होते जाते उनके सत्त्वों का रक्षण कर दो। शुष्ण की माया को छिन्न-भिन्न करके इससे ढके पड़े सज्जनों के यज्ञों को फिर सुप्रकट कर दो। प्रभो! अब तो हद हो चुकी है। हे इन्द्र! तुम्हारा इन्द्रत्व और किस समय के लिए है?
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ओ३म् का झंडा 🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩
……………..ऊँचा रहे
🐚🐚🐚 वैदिक विनय से 🐚🐚🐚
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