ओ३म्!!
इंद्रम् वर्धन्तो अप्तुरः कृण्वन्तो विश्वार्यम्! अपघ्नन्तोSरावणः!!
ये ऋग्वेद ६३_५ का सूत्र है,
ईश्वरीय वाणी वेद की ये ऋचा सम्पूर्ण विश्व को आर्य बनाने का आदेश कर रही है, आर्य कौन?
जो गुण कर्म स्वभाव से पवित्र है वो आर्य(श्रेष्ठ ) क्योंकि आर्य शब्द जातिवाचक ना हो गुणों का विशेषण हैं, इसलिए जो व्यक्ति इन शुभ कर्मों को ग्रहण किया हुआ है, वो आर्य है, श्रेष्ठ लोगों के लिए महाभारत कार का ये वचन भी उपरोक्त मत की सिद्धि करता है!
न वैरमुद्द्दीपयति प्रशान्तं न दर्पमारोहति नास्तेमति!
ना दुर्गतोअस्मीति करोत्यकायं तमार्यशीलं परमाहुरार्यः!!
ना स्व सुखे वै कुरुते प्रहर्षे चान्यस्य दुःखे भवति विषादी!
दत्वा ना पश्चात्कुरुतेSनुतापः स कथ्यते सत्यपुरुषार्यशीलः!!
अर्थात जो शांत हुए वैर को फिर से नही भड़कता, जो घमण्ड नही करता , जो अपने को हीन नही जानता, मैं विपत्ति में पीडीए हूँ" ऐसा कहकर जो अधर्म कार्य नही करता, उसे आर्यजन अत्यंत आर्यशील-श्रेष्ठ आचरण वाला कहते हैं!
जो अपने सुख में फूलकर कुप्पा नही हो जाता , जो दूसरे के दुःख में दुःखी हो जाता है, और दान देकर वाद में पश्चाताप नही करता है, वह सत्पुरुष वास्तव में आर्य कहलाता है!
अंत में ईश्वर भक्ति से मुझे क्या मिला आपके समक्ष
क्या बताऊँ क्या मिला ,मुझको प्रभो के ध्यान में?
एक अलौकिक सुख मिला, जब मन लगा भगवान में!!
जब भी उसके गीत गाए, शुद्ध अंतर्मन हुआ,
सद्गुणों का कोष पाया, ईश के गुणगान में!!
जैसे एक व्याकुल नदी सागर में मिलकर तृप्त हो,
तृप्ती ऐसी अनिर्वचनीय मुझको मिली बस ध्यान में!!
जैसे पतझड़ में बसन्त आजाये मस्ती संग ले,
पुष्प अनगिनत खिल उठे त्यों आत्मिक उद्यान में!!
अहम सारा मिल गया, भय-भृम भी सारा हट गया,
लग गयीं इन्द्रियाँ ही आत्मिक उत्थान में!!
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