१३ आषाढ़ 27 जून 15
😶 “ अभय ही अभय ” 🌞
ओ३म् इदमुच्छेयो अवसानमागां शिवे मे द्यावापृथ्वी अभूताम् ।
असपत्न प्रदिशे में भवन्तु न वै त्वा द्विष्मो अभयं नो अस्तु ।।
अथर्व० १९ । १४ । १
शब्दार्थ :- अब यही कल्याणकार है कि मै अब समाप्ति पर आ जाऊँ, द्वेष-परम्परा का विराम कर दूँ,अत:
हे शत्रो !
तेरे साथ मै तो द्वेष करना छोड़ ही देता हूँ । द्यौ और पृथ्वी भी मेरे लिए अब कल्याणकारी हो जाएँ, सभी दिशाएँ मेरे लिए शत्रुरहित हो जाएँ मेरे लिए अब अभय-ही-अभय हो जाए ।
विनय :- हे मेरे भाई !
मैंने अब तक तुमसे बहुत द्वेष किया,खूब दुश्मनी की । अगर तुमने मुझे नुक्सान पहुँचाया तो मैंने भी तुम्हें पहुँचाया ।तुमने फिर उसका बदला लिया तो मैंने भी उसका प्रत्युतर दिया । इस प्रकार हमारी द्वेषाग्रि दिनोंदिन बदती ही गयी हाउ,भयंकर रूप धारण करटी गयी । इस द्वेष से हम दोनों का ही बहुत नुक्सान हुआ । मै देखता हूँ कि ईट का जवाब ईंट से देने से नुक्सान दोनों का होता है और ये तब तक नहीं रुकता जब तक सम्पूर्ण विनाश ना हो जाएँ । कल्याण इसी में है कि ये अब रुक जाएँ । हम दोनों में एक क्रोध का जवाब क्रोध से ना देकर प्यार से शान्ति से देकर इसे यहीं विराम लगा दे,इसी में कल्याण है । इस प्रकार बदती विनाशलीला यहीं शांत हो जायेगी ।
अत:तुम मुझसे चाहो जितना मर्जी द्वेष करों मै उसका जवाब नहीं दूंगा । मै आज द्वेष परम्परा का अवसान करता हूँ विराम लगाता हूँ आज से तुम मेरे शत्रु नहीं भाई हो । मेरे ह्दय के किसी भी कोने में तुम्हारे लिए द्वेष नहीं प्यार है ।
देखें,
अब तुम मेरे से कब तक द्वेष करोगे । मै अब तुम्हारे क्रोध को सहता रहूँगा,और तुमसे प्रेम ही करता जाऊँगा ।
हे भाई !
अब सिर्फ तुमसे ही नहीं मै अब किसी भी आदमी से द्वेष नहीं करूँगा । अत: ये सब विस्तृत दिशाएँ मेरे लिए आज से बिलकुल असपत्न हो गयी हैं, शांत और सुखदायिनी हो गयी है ।
ओ३म् का झंडा 🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩
……………..ऊँचा रहे
वैदिक विनय से
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