जीवन और मृत्यु का रहस्य—–जीवन और मृत्यु ये दोनों ही शब्द संस्कृत भाषा के है।तथा परस्पर विरोधी हैं।जीव प्राणधारणे-धातु सः जीवन शब्द और मृड प्राणत्यागे से मृत्यु शब्द की उत्तपति होती है।प्राणधारण से प्राणत्याग बिलकुल विपरीतार्थक है।इसका सीधा सा अभिप्राय है कि जब तक प्राण वायु का संचार नासिकारन्ध्र द्वारा होता रहता है तब तक जीवध औरजब प्राणवायु का नासिका रन्ध्रों से गतागत समप्त हो जाता है तब मृत्यु शब्द का प्रयोग होने लगता है।इस प्राण वायु के धारण और परात्याग द्वारा जो जीवन और मरण ये दो अवस्थाएं बनी ये शरीर की हैं या शरीर के अभयन्तर निवास करने वाले जीव की अथवा वायु की? जीवन और मृत्यु का व्यपदेश शरीर से सम्बंध रखता है।अर्थात जब तक शरीर में प्राण वायु संचार रहता है,तब तक नेत्रों से अन्धा,कानों से बधीर,वाणी से गूंगा भी जीवित ही कहा जाता है।जब प्राण वायु का सम्बंध शरीर से हट जाता है तब सभी ईन्द्रियों से सम्पृक्त होता हुआ भी वह मृत माना जाता है।इसलिए प्राण को सबसे उत्तम माना गया। अब विचार यह करना है कि क्या प्राण परित्याग शरीर की मृत्यु और प्राण के रहते रहते जीवन बस इतना ही सत्य और तत्त्व है या जीवन मरण व्यपदेश में अन्य भी कोई तथ्य है।इस सम्बंध में नास्तिक और आस्तिक दो सम्प्रदाय माने जाते हैं। गीता में कहा गया हैजिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग करदूसरे नये वस्त्रों को धारण करता है उसी प्रकार जीवआत्मा पुराने शरीर को त्याग कर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त होता है।पुराने वस्त्रों के त्याग और ग्रहण में भी कुछ निमित्त होता है।कोई उत्सव या अन्य हेतु होने पर ही वस्त्रान्तर धारण किये जाते हैं।ठीक उसी प्रकार कर्मनिनित्तक ही देहान्तर के धारण करने का कारण होता है।इसलिए छान्दोग्योपनिषद् में यह कहकर सिद्ध किया गया है कि हे सौम्य !इस संसार का मूल सत्तत्त्व हैऔर इस सब प्रजा का एकमात्र सदधिष्ठान है और सब प्रजा सत्तत्त्व में ही स्थित है।इस प्रकार शरीर से भिन्न प्राण से भिन्न तथा इन्द्रिय ग्राम से भिन्न एक तत्त्व है जो शरीरान्तरों में गतागत करता है और उसकी जीवन तथा मृत्यु—ये दो गतियां हैं। यह तो एक अत्यन्त सामान्य बात है। पर इससे आगेबहुत ही विचारणीय बात यह है कि आछिर वह तत्त्व जो पुर्वोक्त तीन वस्तुओं का संघ हैवह कैसे मनुष्य और स्त्री के शुक्र शोणित में पहुंचा,कहां से गया,कैसे गया इत्यादि।इसी प्रसंग को दृष्टि में रखते हुए कहा है—और उत्तर दते हुए कहा है—–काल ,स्वभाव,नियति,भूत,आत्म-संयोग से शरीर के कारण होते हैं।केवल आत्मा इस संबंध में कारण नहीं माना जाता।जिस प्रकार उत्पत्स्यमान अंकुर के प्रति न केवल बीज न केवल भूमि और न केवल कृषक कारण है—-बीज,भूमि,कृषक,जल,वायु सभी समुदित होकर अंकुर के कारण बनते हैं,ठीक उसी प्रकारअन्नादि मेघ द्वाराऔर शुक्र शोणित अन्न द्वारा बनने पर जीव भीउन उन पदार्थों के द्वाराउन्हीं में ओत प्रोत हुआ जीवन मरण के चक्र में पडा रहता है।इस महाचक्र से छुटकार पाने के लिए जप,तप ,ध्यान और समाधि का विधान शास्त्रों में बताया गया है।वह एक देवआत्मा याब्रह्मपदवाच्य (उर्णनाभि)मकङी की भांति अपने द्वारा उत्पन्न की गयि वस्तुओं से ही अपने को बांध लेता है।ठीक उसी प्रकार यह आत्म रूपी दिव्य प्रकाश वाला देव अपने द्वारा उत्त्पन्न की गयी वस्तुओं से अपने को ही बांध लेता है। इसी बात को और स्पष्ट करते हुए कहा है कि लोग इस संसार को छोङकर परलोक में जाते समय पहले चन्द्रमा में पहुंचते हैं।यदि उन जीवों के कर्म तुरन्त जन्म लेने वाले होते हैं तो वे वर्षा द्वारा भूमि पर आ जाते हैं।और जिन शरीरों के उपयोगी उनके कर्म होते हैं उन शरीरों में वे पहुंच जाते हैं।कोई कीङे पतंगे पक्षी मनुष्य दव गन्धर्व इत्यादि शरीर में जन्म ग्रहण कर लेते हैं।इस प्रकार जीवप मृत्यु का शास्त्रों में बहुत विवेचन है।पर वस्तु स्थिति यह है कि वह एक तत्त्व ब्रह्म या आत्मा सर्वत्र है। कर्मानुसार उसी का देहान्तर में प्रवेश निवेश होता है।यह सब सत असत कर्म-कलाप का परिणाम है।वास्तव में यदि आत्म तत्त्व को ठीक समझ लिया जाए मनन और निधिध्यासन द्वारा पूर्ण निष्ठा हो जाए तो जन्म देने वाले कर्मों की समाप्ति हो जाती है।जब जन्म देने वाले कर्म नहीं तो मृत्यु कहां से?इसलिए वेदान्तियों का यह डिण्डिम घोष है————-आत्मोषनिषद31 में न तो आत्मा की कभी उत्तपति होती हैऔर न कहीं ये अवरूद्ध किया जा सकता है न आत्मा कभी बंधन में पङता है और न ही इसे कभी साधनि करने की आवश्यकता पङती है न तो इसे कभी मोक्ष के लिए प्रयत्न करना पङता हैऔर न ये कभी मुक्त ही होता है।क्योंकि यह पहले से ही मुक्त है। वास्तव में यही पारमार्थिक स्थिति है। ओम तत् सत्।।
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