।। ईश्वर और भगवान मे अन्तर ।।
पाठक गण ! ‘ईश्वर ’ पर
सब कुछ अर्थात पूर्ण रूप से लिखना अल्पज्ञ और अल्प
शक्तिमान जीवात्मा की शक्ति से परे है |
एक संस्कृ��� के कवी ने लिखा है —-
असित गिरी समं स्यात कज्जलं सिन्धु पात्रे |
सुरतरुवर शाखा लेखनी पत्र मूर्वी |
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति ||
अर्थ –यदि समुद्र की दवात बने ,कृष्ण पर्वत
की स्याही बना कर उस दावत मै
डाली जाय ,कल्प तरु की शाखा
की लेखनी बने ,समस्त पृथ्वी
कागज के रूप में प्रयुक्त हो और साक्षात् सरस्वती
अनंत कल तक लिखती चली जाय तब
भी हे ईश्वर ! तुम्हारे गुणों का पर नहीं
पाया जा सकता | फिर भी विषय प्रवाह बनाये रखने हेतु
श्रेष्ठ व् उत्तम साहित्य के रहते भी कुछ चिंतन
प्रस्तुत करते है |
वेद का प्रत्येक मंत्र ईश्वर का वर्णन कर रहा है | वेद का
मुख्य विषय ,ईश्वर , ही है | मनुष्य जाति जब से
वेद से अलग हुई है तब से द्रश्य को मानाने और अद्रश्य को न
मानाने की आदी हो गयी है|
ईश्वर सच्चिदानंद स्वरुप ,निराकार , सर्व शक्तिमान ,
न्यायकारी ., दयालू .अजन्मा ,अनंत ,निर्विकार , अनादि ,
अनुपम , सर्वाधार ,सर्वेश्वर सर्व व्यापक ,
सर्वान्तर्यामी , अजर, अमर, अभय .नित्य ,पवित्र
और सृष्टि करता है | उसी की उपासना
करनी योग्य है |
किन्तु स्वाध्याय ,सत्संग और मनन के आभाव में किसी
साधारण मनुष्य द्वारा छल कपट का सहारा लेकर दिकाए गए चमत्कारों
से आज बड़े-बड़े बुद्धिजीवी
भी धोखा खा जातें हैं | यह देख आश्चर्य
भी होता है तो तरस भी आता है | क्यों
की वे ईश्वरों को ऑंखें खोल कर देखना
नहीं चाहते |
संसार में ईश्वर रचित हर वस्तु परमात्मा के अस्तित्व
की साक्षी दे रही है |
परन्तु भोतिक आँखों से वह कैसे दिखाई देगी |
एक पवित्र ऋचा में कैसे सुन्दर भाव हैं —–
अयम स्मि जरितः पश्य मेह विश्वा जतान्य भ्य स्मि मन्हा |
ऋतस्य माँ प्रदिशो वर्ध यन्त्या दर्दिरो भुवना दर्दरीभि ||
ऋग्वेद ८/१००/४
ईश्वर कहता है – जस्तिः :- हे स्तुति करने वाले भक्त क्यों
संदेह करता है |में तो यह रहा | तेरे ही पास |
पश्य मा इह – मुझे तू अपने अति निकट ही देख ले
|
प्रभु दर्शन हेतु ज्ञान - चक्षु की आवश्यकता
होती है | इसीलिए शायर कहता है —
रोशन हैं मेरे जलवे ,हर एक शै में लेकिन |
है कोर चश्म तेरी क्या है कसूर मेरा ||
किसी वस्तु के अस्तित्व में होने पर भी
उसके दिखाई न देने के आठ वेदोक्त कारन विद्वानों ने बताये हें |
(1)किसी वस्तु का अति दूर होना , जेसे आकाश में अति
दूर उडाता उपग्रह या रोकेट |एन तो जल अद्रश्य
(२) अति समीप होना , यथा ,आँखों में काजल अपने
आपको दिखाई नहीं देता |
(३) आवरण युक्त होना ,जैसे ,भूमि के अन्दर जल स्रोत ,खनिज
पदार्थ |
(४) इन्द्रयाँ दुर्बल होना (द्रष्टि शक्ति अति न्यून हो तो वस्तु
दिखाई नहीं देती )
(५) मन का एकाग्र न होना –मन और आंख का संयोग न होना |
(६) अपने से तीव्र वस्तु से अभिभूत होना–अति
तीव्र प्रकाश या अति अन्धकार से प्रभावित होना |
(७) सामान आकर की वस्तुएं मिल जाना —जैसे वायु में
,दूध में जल मिला दें तो जल अद्रश्य हो जायेगा |
(८) अति सूक्ष्म होना
उपरोक्त आठ बिन्दुओं पर गह राइ से चिंतन करने पर यह बात
स्पष्ट हो जाती है कि संसार में अनेक पदार्थ ऐसे हें
जिनका अस्तित्व है किन्तु नेत्रों से हम उन्हें देख
नहीं सकते | क्या परिवार भूख या प्यास लगाने पर माता
या पत्नी के समक्ष भूख ,प्यास को बाहर निकल कार
दिखा सकते हें | इसी प्रकार मरीज अपने
दर्द को डॉक्टर या वैद्य को नहीं दिखा सकता |
आइये देखें वह इश्वर कैसा है —–
ईशा वास्यमि दं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत | हे मनुष्यों | ये सब
चराचर ,स्थावर - जंगम , द्रश्य - अद्रश्य पदार्थ ब्रह्माण्ड में
हँ | वह सब इश्वर से ओत - प्रोत हें |
अणो रणी यान्महतो महीयानू –
कठोपनिषद बली - २
वह परमात्मा सूक्ष्म से सूक्ष्म और महँ से महँ है |
स हि सर्व वित् सर्व कर्ता – संख्य दर्शन ३/५६
वह परात्मा सर्वा न्तार्यामी और सब जगत का कर्ता
है |
तदेजति तन्ने जति तददूरिके तद्वन्ति के |
तदन्त रस्य सर्व स्य तदू सर्व स्यास्य बाह्यतः || यजुर्वेद अ.
४०
वह परात्मा सरे संसार को गति देता है किन्तु स्वयं गति शून्य है
,अचल है | वह दूर भी है और समीप
भी है | वही सरे संसार में अणु -
परमाणु के अन्दर भी है और बहार भी
है |
महान्तं विभु मात्मा नमू मत्वा धीरो न शोचति | |
कठोपनिषद / वल्ली –२
वह इश्वर सब शरीरों में बिना शारीर के
मोजूद है और चलायमान चीजों में स्थिर है | ऐसे
महान सर्व व्यापक परमात्मा को जानकर धीर जन शोक
रहित हो जाते है |
परमात्मा के इसी स्वरुप का वर्णन श्री
गोस्वामी तुलसी दस ने भी
निम्न शब्दों में किया है –
बिनु पग चलहिं ,सुने बिनु काना |
बिन कर कर्म करे विधि नाना | |
वाणी उस परमब्रह्म का स्वरुप वर्णन करने में
असमर्थ है | तभी उपनिषद कर ऋषि नेति-नेति कह
कर अपनी असमर्थता प्रकट करते हैं |
इश्वर अणु से भी सूक्षम और महान से
भी महान है | इसी लिए वह नित्य है
,अमर है , अजर है , अभय है , और निर्अवयव है ,अकाय
है |
भगवान
अब हम भगवान विषय पर कुछ विचार करेंगे |
वर्त्तमान स्थिति में भारत के हर प्रान्त में अनेक भगवान पैदा हो
चुके हैं | जिधर देखिये उधर भगवान ही भगवान नज़र
आते हैं | पुराणों में इस कलयुग की २८ वीं
चतुर्यगी में भगवान ( ईश्वर ) के दशावतार
की चर्चा सुनते आये हैं |
यथा हम धन वाले को धनवान , विद्या वाले को विद्यावान कहते हैं
उसी प्रकार भग वाले को भगवान कहा जाता है | प्रथम
भग शब्द पर विचार करें |
भग संस्कृत का शब्द है |
एश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यश स श्रियः |
ज्ञान वैराग्य यो श्चैव श ण णो भग इतिरणा | |
अर्थात -सम्पूर्ण एश्वर्य, धर्म , यश ,श्री ,ज्ञान
और वैराग्य इन छः का नाम भग है | इन सब लक्षणों से
भी अनंत गुण जिसमें हैं वह इश्वर ( परम भगवान )
है , किन्तु जिन महा मानवों में भग के उपरोक्त गुण पाए जाते हैं
,या वे संसार भर के लिए इन गुणों के चरम उत्कर्ष को अपने
जीवन में धारण करते हुए आदर्श प्रस्तुत करते हैं
उन्हें भी हम भगवान कह के संबोधित करते हैं |
उपरोक्त गुणों से युक्त हो कर मानव जाति को अज्ञान, अत्याचार,
भय ,शोषण से मुक्ति दिलाने वालों को भी भगवान माना गया
है | जैसे भगवान राम , भगवान कृष्ण |
क्रमशः “देवता ईश्वर भगवान्” पुस्तक, लेखक श्री
कान्तिलाल 'अग्निमित्र’ आर्यापुरोहित से (संक्षिप्त में)
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