ऋग्वेद: प्रथम मण्डल: तीसरा सूक्त
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मधुच्छन्दा ऋषि:
पथार्थ:स्वामी दयानंद जी
ऋ.1/3/1:- हे परमात्मा की विधा चाहिने वाले मनुष्यो ! तुम लोग अपने शरीर के अंदर उयसन योग यज्ञ का अभ्यास करो। जिसमे शीघ्र वेग से चलने वाले सप्तमसारपथार्थ (वीर्य) को ऊपर मस्तिस्क के आकाश में ले जानें के लिए व्यवहार सिद्धि करनी है; इसे ऊपर ले जाकर उत्तम शुभ गुणों का प्रकाश करना है। इसका पालन करना है। अर्थार्थ यह एक दिन के अभ्यास से नही होगा। प्रतिदिन दोनों संध्या कालो में कम से कम एक घण्टा जरूर करना है। रोज- रोज के अभ्यास से बुद्धि इन ऊर्जा कणों को मस्तिस्क में एकत्रित करके पालन करती रहती है और फिर एक दिन बढ़ा कर प्रकाशित करवाती है। इन चमकीले सोम कणों की वर्षा मस्तिस्क के आकाश में होती है। जिससे उत्तम गुणों की प्राप्ति होती है। यह सप्तमसारपथार्थ (वीर्य) अनेक खाने पीने के पथार्थो को खाने पीने से उतपन्न होता है। इस उपासना योग यज्ञ अभ्यास को सफलता से सिद्ध करने के लिए जल और अग्नि रूप अविषणा देव सहायता करते है। अर्थार्थ साधक जब सूर्य रूपी मस्तिस्क से पेड़ू (जल) और नाभि (अग्नि) में नीचे से ऊपर एकाग्रता किर्या “ ओउम् भुवः(जल) पेड़ू में, ओउम् स्व:(अग्नि)नाभि में, मन्त्रो द्वारा करता है तो इस शिल्पविधा की कारीगरी की किर्या से यह वीर्य नाभि में आकर अग्नि द्वारा शुद्ध होकर छोटे-छोटे ऊर्जा कणो में परवर्तित हो जाता है और ऊपर उठने लगता है। हिरदय में स्थित वायु इसे लेकर मस्तिस्क के आकाश में ले जाती है। अतः इस उपासना योग यज्ञ अभ्यास में इस शिल्पविद्या का सम्बन्ध कराने वाली ; अपनी चाहि हुई अन्न आदि पथार्थो से उतपन्न होने वाली ऊर्जा कणो को कारीगरी की किर्या से अति प्रीति से सेवन किया करो। हे मनुष्यो ! ये है वेदों में उपासना योग यज्ञ ; जिसका अभ्यास सभी को करना च्चाईए।
_______राजिंदर कुमार थुल्ला
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