[2:23pm, 09/10/2015] भूपेश सिंह आर्य: भूपेश सिंह आर्य: ईश्वर का स्वरुप-वेद में ईश्वर को निराकार कहा गया है।यहां यह विषेश विवेचन का विषय है कि ईश्वर को साकार मानने वालो मे ईश्वर की प्रतिमा एवं मनुष्य के रुप में अवतरित होने की कल्पना की है किन्तु वेद में इस मत का सर्वथा विरोध है जैसा कि यजुर्वेद में स्पष्ट कहा है कि ‘नतस्य प्रतिमास्ति यस्य नाम महद्दश:’ अर्थात “परमेश्वर की प्रतिमा,आक्रति व मूर्ति नहीं है।"इसी प्रकार ऋग्वेद ने कहा है-अपादशीर्षा गुहमानो अन्तायोयुवानो व्रषभस्य नीडे। अर्थात ईश्वर पांव,सिरादि शारीरिक अवयवों से रहित है। अवतारवाद का प्रबल रुप से निषेध करते हुये यजुर्वेद में कहा है-
"स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रण्मस्नाविरम् शुद्धंपापविद्धम्। कविर्मनीषी परिभू:स्वयम्भूर्याथातथ्यतोअर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्य: समाभ्य:"।
अर्थात् "वह ईश्वर सर्वशक्तिमान,कारण,सूक्ष्म तथा स्थूल शरीरों में रहित अर्थात् कभी भी नस नाडी के बन्धन में नहीं पडने वाला,अविद्यादि दोषों से रहित सदा पवित्र,पाप संसर्ग से सदा प्रथक,सर्वज्ञ,अन्तर्यामी,परिभू,स्वयम्भू,सर्वत्र व्यापक है।”
इसके विपरित वेद में कहीं पर भी ईश्वर के साकार रुप का प्रतिपादन नहीं किया गया है।
यह प्रश्न कि ईश्वर साकार है या निराकार है? दार्शनिक महत्व के साथ साथ जन सामान्य के लिये भी उपयोगी है क्योकि जन सामान्य में फैली अनेक मिथ्या धारणाओ का आधार ईश्वर को साकार मानना ही है।यथा अवतारवाद,मूर्तिपूजा,जडपूजा आदि धारणाओं का आधार ईश्वर के साकार रुप की कल्पना ही है।अत: इस विषय का विवेचन करना विषेश महत्व रखता है। यहां सर्वप्रथम इस प्रश्न के उत्तर में स्वामी दयानन्द का कथन द्रष्टव्य है-
प्रश्न-ईश्वर साकार है या निराकार?
उत्तर-निराकार,क्योकि जो साकार होता तो व्यापक नहीं हो सकता।जब व्यापक नहीं होता तो सर्वज्ञादि गुण भी ईश्वर में नहीं घट सकते क्योंकि परिमित वस्तु में गुण ,कर्म,स्वभाव भी परिमित रहते हैं तथा शीतोष्ण,क्षुधा,त्रष्णा और रोग,दोष,छेदन,भेदन आदि से रहित नहीं हो सकता। इससे यही निश्चित है कि ईश्वर निराकार है। जो साकार हो तो उसके नाक,कान,आंख आदि अवयवों के बनाने हारा दूसरा होना चाहिये क्योकि जो संयोग से उत्पन्न होता है उसको संयुक्त करने वाला निराकार चेतन अवश्य होना चाहिये। जो कोई यहां ऐसा कहे कि ईश्वर ने स्वेच्छा से आप ही आप अपना शरीर बना लिया तो भी यही सिद्ध हुआ का शरीर बनाने से पूर्व निराकार था। इसलिये परमात्मा कभी शरीर धारण नहीं करता।
२.अब प्रश्न यह है कि बिना हाथों के जगत की रचना कैसे करता है?
यह प्रश्न करने वाले यह भूल जाते हैं कि जिन हाथों को वे किसी वस्तु के बनाने का साधन मानते हैं उन हाथों को भी बनाया गया है और यदि कहो कि उन हाथों को दूसरे हाथों ने बनाया तब यह प्रश्न उठेगा कि फिर उन हाथों को कि ने बनाया ओर अन्त तक इस प्रश्न का समाधान नहीं हो सकता जब तक कि यह न मान लिया जायेगा का हाथों की रचना भी निराकार द्वारा ही हुई है क्योंकि शरीर के समस्त अवयवों का निर्माण मां के गर्भ में आन्तरिक रुप से वाह्यकरण की ओर होता है और यह सब कार्य उसी निराकार शक्ति द्वारा होता है।
प्रश्न-ईश्वर निराकार है,वह ध्यान में नहीं आ सकता,इसलिये अवश्य मूर्ति होनी चाहिये।भला जो कुछ भी न करे,तो मूर्ति के सम्मुख जा हाथ जोड परमेश्वर का स्मरण करते और नाम लेते हैं।इसमें क्या हानि है?
उत्तर-जब परमेश्वर निराकार है,सर्वव्यापक है तब उसकी मूर्ति ही नहीं बन सकती और जो मूर्ति के दर्शन मात्र से परमेश्वर का स्मरण होवे तो परमेश्वर के बनाये प्रथ्वी,जल,अग्नि,वायु और वनस्पति आदि अनेक पदार्थ,जिनमें ईश्वर ने अद्भुत रचना की है क्या ऐसी रचना युक्त प्रथ्वी,पहाडादि परमेश्वर रचित महामूर्तियों कि जिन पहाडादि से मनुष्यक्रत मूर्तियां बनती हैं उनको देखकर परमेश्वर का स्मरण नहीं हो सकता क्या?जो तुम कहते हो कि मूर्ति को देखने से परमेश्वर का स्मरण होता ह यह तुम्हारा कथन सर्वथा मिथ्या है और जब वह मूर्ति सामने न होगी तो परमेश्वर का स्मरण न होने से मनुष्य एकान्त पाकर चोरी जारी आदि कुकर्म करने में प्रव्रत हो सकता है क्योंकि वह जानता है कि इस समय मुझे यहां कोई नहीं देखता।इसलिये वह अनर्थ किये बिना नहीं चूकता।इत्यादि अनेक दोष पाषाणादि मूर्ति पूजा करने से सिद्ध होते हैं।
अब देखिये!जो पाषाणादि मूर्तियों को न मानकर सर्वदा सर्वव्यापक,सर्वान्तर्यामी,न्यायकारी परमात्मा को सर्वत्र जानता और मानता है वह पुरुष एक क्षण मात्र भी परमात्मा से अपने को प्रथक न जान के,कुकर्म करना तो कहां रहा किन्तु मन में कुचेष्टा भी नहीं कर सकता।क्योंकि वह जानता है कि जो मैं मन,वचन,कर्म से भी बुरा काम करुंगा तो इस अन्तर्यामी के न्याय से बिना दण्ड पाये कभी न बचूंगा। और नाम स्मरण मात्र से कुछ फल नहीं होता। जैसे कि मिश्री कहने से मुंह मीठा
[2:26pm, 09/10/2015] भूपेश सिंह आर्य: जैसे कि मिश्री कहने से मुंह मीठा और नीम नीम कहने से मुंह कडवा नहीं होता किन्तु जीभ के चखने ही से मीठा या कडवापन जाना जाता है।
४.सोना,जागना,हंसना,रोना यह चैतन्य जीवों का धर्म है या जड मूर्तियों का?क्या परमेश्वर जो कि निर्विकार है वह भी सोना,जागना,हंसना,रोना आदि विकारों से युक्त होने के कारण विकारी है?जब नहीं है तो पुजारियों के इन वाक्यों का'भगवान को सुला दो,भगवान को भोग लगा दो,भगवान पर पंखा झल दो’ कहने का क्या अर्थ है?
५.आत्मा और परमात्मा में किस प्रकार की दूरी है?क्योंकि दूरी तीन प्रकार की होती है।-देश की दूरी,काल की दूरी,अज्ञान की दूरी।इनमें से प्रथम तो इसलिए नहीं है क्योंकि परमात्मा सर्वत्र व्यापक व उपस्थित है। दूसरी भी नहीं है क्योकि परमात्मा के साथ एसी बात नहीं है कि वह कभी पहले रहा हो वा आगे होवे और वर्तमान में न हो।परमात्मा नित्य है। तीसरी अज्ञान की दूरी है कि उसके सर्वत्र घट घट वासी होते हुए भी हम उसे अपनी अज्ञानता से अनुभव नहीं करते हैं।यह अज्ञानता की दूरी अज्ञान से मिट सकती है और प्रत्येक अपनी ही आत्मा में उसे अनुभव कर सकता है।इसके लिए अपने से बाहर उसे ढूंढना व भटकते फिरना अज्ञानता क्यों नहीं है।
६.मूर्तियों में न तो प्राण प्रतिष्ठा हो सकती है और न उनमें कोई सकती ही होती है।वे बादाम तोडने के काम तो आ सकती हैं किन्तु स्वत:किसी का भी कोई हानि लाभ नहीं कर सकती हैं।इतिहास में प्रकट है कि यवनों ने लाखों मन्दिर तोड डाले,मूर्तियां अंग भंग कर दीं।आज भी चोर उन्हे चुरा ले जाते हैं।पुजारी उन्हें सुरक्षा के लिए ताले में बंद रखते हैं। तो ऐसी दशा में बेजान मूर्तियों को परमात्मा मानकर पूजना,उसी में अपना अनमोल जीवन बर्बाद करना,तुम्हारी घोर अज्ञानता नहीं तो क्या है जो तुम देखते हुए भी मूर्तियों की असलियत को नहीं समझते हो?
७.जब मुसलमान,ईसाई लोग भी परमात्मा की सीधी उपासना कर सकते हैं और करते हैं तो तुमको ईंट,पत्थरों की मूर्तियां बनाकर पूजने की किसलिए आवश्यकता पडती है? क्या तुममें उनके बराबर भी अक्ल नहीं है जो परमेश्वर की सीधी उपासना भी करना नहीं जानते हो?
८.तुम मूर्ति की पूजा करते हो अथवा उसमें व्यापक परमेश्वर की पूजा करते हो?यदि मूर्ति की करते हो तो उसके हाथ,पैर,नाक आदि नष्ट हो जाने पर उसी मूर्ति की पूजा क्यों नहीं करते हो? यदि व्यापक परमेश्वर की पूजा करते हो तो वह तो अंग भंग मूर्ति में वा जिस पत्थर वा धातु से मूर्ति बनती है उसमें भी व्यापक होता है तथा विश्व के प्रत्येक पदार्थ में व्यापक रहता है तो उसकी पूजा क्यों नहीं करते हो? एक खास शक्ल सूरत वाली धातु वा पत्थर से बनी मूर्ति की पूजा ही क्यों करते हो?एक खास शक्ल सूरत वाली मूर्ति की पूजा करने के कारण तुम केवल आक्रति पूजक हुए न का ईश्वर पूजक!
९.जब किसी ने भी परमात्मा को आंखों से कभी देखा ही नहीं है और अगोचर होने से वह इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य भी नहीं है तो तुम कैसे साबित कर सकते हो कि तुम्हारी कल्पित मूर्तियां परमात्मा की शक्ल व सूरत वाली होती है?विभिन्न प्रकार की तुम्हारी मूर्तियां ही यह सिद्ध करती हैं कि तुमको अपने कल्पित साकार परमात्मा की आक्रति का भी कोई किसी भी तरह का ज्ञान नहीं है।
१०.निराकार एकदेशीय प्रत्येक जीव के शरीर में विद्धमान जीवात्मा की मूर्ति भी तुम नहीं बना सकते हो तो विश्व व्यापी अनन्त परमेश्वर की मूर्ति बनाने की पाखण्ड रचना तुम्हारी घोर अज्ञानता व पाखण्ड नहीं है तो और क्या है?
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