Friday, October 9, 2015

ओ३म । 🌹 वैदिक विनय—-50 🌹 ––––––––––––––––– 👉अभि प्र गोपतिं गिरा इंद्रमर्च यथाविदे । ...

ओ३म ।
🌹 वैदिक विनय—-50 🌹
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👉अभि प्र गोपतिं गिरा इंद्रमर्च यथाविदे ।
सुनूं सत्यस्य स्तपतिं ।।
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👉ऋग्वेद: 8/69/4; साम वेद पू. 2/2/¾; ऋषि:– अंगिरस: प्रियमेध: । देवता इंद्र: । छंद: निचरद गायत्री ।
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👉हिंदी अर्थ,“ हे मनुष्य! यथार्थ ज्ञान पाने के लिए तू इन्द्रियों के स्वामी आत्मा का वाणी द्वारा अपरोक्ष और पूरी तरह पूजन कर; जोकि आत्मा सत्य का पुत्र है और सदा सत का पालक है।”
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👉सरल रहस्य विनय:- लेखक:– राजिंदर वैदिक । 👏
👉इस मन्त्र में ऋषि ने स्पस्ट कर दिया है की मनुष्यों को किसकी उपासना करनी चाहिए और कैसे करनी चाहिए? अर्थार्त मनुष्यों को उपासना योग यज्ञ अभ्यास में अपनी इन्द्रियों की गति को मन की गति में
विलय कर देनी चाहिए। फिर मन की गति को बुद्धि में विलय कर देनी चाहिए। फिर बुद्धि की गति को भावों में; श्रध्दा में विलय कर देना चाहिए और फिर भावों को इन सब के स्वामी आत्मा में समर्पण कर देना चाहिए। ठहरा देना चाहिए। ये ही उपासना योग यज्ञ अभ्यास की पूजा–उपासना है। तभी तुझे यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति होगी। तभी अपने आप को इस शरीर से अलग देख पायेगा और पहचान पायेगा; की मैं शरीर, इन्द्रिया,मन- बुद्धि नही हूँ; बल्कि इन सब को चलाने वाला; इन सब का स्वामी चेतन आत्मा हूँ। और मैं कभी मरता नही हूँ। मेरा ये स्थूल शरीर ही मुझसे अलग होता है। ऐसा उपासना योग यज्ञ(ब्रह्मयज्ञ) अभ्यास में अपने को अपने शरीर से अलग होकर साक्षात् जान लेता है; देख लेता है। ऐसा जानने तक; पहुँचने तक साधक को तीसरें नेत्र (नासिका के अग्रभाग) से मस्तिस्क के आकाश में अनेक प्रकार की अनुभूतिया होती है। कई बार तो अव्यक्त वाणी; अपरोक्ष वाणी; मानसिक वाणी उतरती है और अपने आप आत्मतत्व का उपदेश कर जाती है; जिसको साधक साक्षी भाव से सुनता रहता है। और भी अनेक प्रकार की अनुभूतिया होती है। ध्यान की अवस्था में अपने मस्तिस्क के आकाश में चाँद; तारे; व् अन्य का देखना। बाहर ब्रह्माण्ड को अपने अंदर देखना– आदि आदि।
हे मनुष्य! अपने आप को जानना; अपने पिता को जानना; अपना निवास स्थान जानना; ये ही यथार्थ ज्ञान है। इन सबको जानने के लिए अपने शरीर के अंदर उपासना योग यज्ञ (किर्यायोगयज्ञ) का अभ्यास कर; अर्थार्त अपनी आत्मा की उपासना कर। यह आत्मा ही सत्य रूप परमात्मा का पुत्र है। स्वरूप से तुम (आत्मा और परमात्मा) दोनों ही प्रकाशस्वरूप हो। इसलिए अपने पिता को जानने के लिए किसी अन्य की उपासना न करके अपने अंदर निवास करने वाली “आत्मा” में अपने मन-बुद्धि-प्राण से समर्पण कर। वह ही इस शरीर का राजा है; स्वामी है। उसकी शक्ति से ही ये सब कार्य करते है। इनकी शक्ति- स्तोत्र को जान; तो तू अपने को जान जायेगा। और अपने को जानना ही पूजा है; उपासना है।
ओ३म तत्सत् । राजिंदर वैदिक 👏


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