ओ३म ।
🌹 वैदिक विनय—52 🌹
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👉ऋग्वेद:8/11/7; साम वेद पू. 1/1/1/8; ऋषि:-वत्स: काण्व:। देवता अग्नि: छंद:- निचरद गायत्री ।
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👉 आ ते वत्सो मनो यमत परमात् चितसधस्थत । अग्ने त्वाम् काम्या गिरा ।।
👉शब्दार्थ,“ मैं वत्स तेरे मन को अति-उत्कृष्ट भी सहस्थान से वश करता हूँ; प्राप्त करता हूँ। हे परमेस्वर ! मैं तुझें वाणी द्वारा चाहता हूँ; मिलना चाहता हूँ।
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👉सरल रहस्य विनय:- राजिंदर वैदिक । 👏
ऋषि वत्स कहते है की मन को अति-उत्कृष्ट बना कर वश में करों। क्योंकि हमारे को अपनी पहचान करवाने वाला यह मन ही है। यह मन हमारे लिए मध्यस्थ का कार्य करता है। संसार और परमात्मा के बीच में यह मन खड़ा है। क्योंकि यह मन प्रकर्ति से बना है; इसलिये इसका झुकाव प्रकर्ति की ओर ही रहता है और यह बहिर्मुखी ही बना रहता है। अंतर्मुखी होने में इसको तकलीफ होती है; क्योंकि ऐसा होना इसकी प्रकर्ति के विपरीत है। लेकिन साधक इसको बार–बार अन्तर में जाने का; अपने उत्पत्ति के स्थान पर वापिस जाने का अभ्यास कराता रहता है। और ऐसा अभ्यास करने से मन भी धीरे–धीरे उत्कृष्ट होने लगता है। अब उसे अंदर जाने में भी मजा आने लगता है; लेकिन बाहिरी विषय उपलब्ध होने पर वह लार भी टपकाने लगता है और स्वयं अपने–आप को झिड़कने भी लगता है। की क्या कर रहा है? क्या सोच रहा है? यह धन– सम्पत्ति; यह कमनीया तुम्हरी नही है; यह किसी ओर की है। तू क्यों लार टपका रहा है। फिर यह मन सामने। भोग के लिए विषय आने पर भी स्वीकार नही करता है; उनसे दूरियां बना लेता है; क्योंकि अब यह मन अति उत्कृष्ट होकर तीसरे नेत्र पर (नासिका के अग्रभाग पर) दशम द्वार पर टिकने लगा है और मस्तिस्क के आकाश में प्रभु द्वार पर पहुँच गया है। तीसरे नेत्र को मन की एकाग्रता से खोलना ही उस प्रभु की तरफ जाने की पहली सीढ़ी है। यहाँ से आगे फिर मन की गति नही है। यहाँ तक लाकर मन शांत हो जाता है; मन के साथ–साथ यह शरीर में विचरने वाला प्राण भी सम हो जाता है; शांत हो जाता है। क्योंकि मन और प्राण का जोड़ा है। एक की गति तेज हो जाये तो दूसरा भी दौड़ता है । कामाग्नि में; जठराग्नि में मन की गति तेज होती है तो प्राण की गति भी तेज हो जाती है। उपासना योग यज्ञ अभ्यास में मन ठहर जाता है; तो प्राण भी ठहर जाता है। और शरीर भी ठूठ की तरह हो जाता है; नीचे से शून् होने लगता है। यदि ऐसा होने लगा है तो समझों आप उपासना योग यज्ञ अभ्यास में सफलता प्राप्त कर रहे है। फिर यहाँ मस्तिस्क के आकाश में ज्ञान की वाणी उतरने लगती है; जिसे साधक साक्षी भाव से सुनता रहता है। इस मन्त्र का ऋषि इसी अव्यक्त वाणी की बात कर रहा है और प्रार्थना कर रहा है। हे परमेस्वर! मैं तुझें वाणी द्वारा चाहता हूँ; मिलना चाहता हूँ।
——-ओ३म तत्सत्।
——–राजिंदर वैदिक👏
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