Sunday, October 11, 2015

आज का सुविचार (7 अक्टूबर 2015, बुधवार, आश्विन कृष्ण १०) पितर अमृतं गमय मृत्योर्मा। पितर सद्-गमय...

आज का सुविचार (7 अक्टूबर 2015, बुधवार, आश्विन कृष्ण १०)

पितर अमृतं गमय मृत्योर्मा।
पितर सद्-गमय असतो मा।
पितर ज्यातिर्गमय तमसो मा।
“अमृत की ओर बढ़ो मृत्यु की ओर नहीं, सत् की ओर चलो असत् की ओर नहीं, ज्योति की ओर चलो तम की ओर नहीं।”
मुर्दा व्यवस्था
मुर्दे ही निर्णायक
मै सबसे निग्न सीढ़ी पर..
मैं कितनी जीवित..!
मुर्दे निर्णायकों की नजरों में श्रेष्ठ बनने के लिए तुम्हें कब्र में प्रवेश करना पड़ेगा। कब्र में प्रवेश मत करो कि तुम्हें ऊंचा पद मिले। अनियम, अऋत, निऋत, ममेति, कब्रें हैं। सात प्रशस्ति-पत्र होने पर भी एक वर्ष `सी’ सी-आर होने के कारण मेरा प्रमोशन नहीं हुआ। विभागाध्यक्ष ने कहा सर्वाच्चाधिकारी से मिल लो, वे तुम्हारा केस जानते हैं। मैं सर्वोच्चाधिकारी से मिला। उसने चर्चा के मध्य में कहा मै तुम्हें प्रमोशन दे सकता हूं तथा बाद मे दे दूंगा। मैंने फौरन कहा प्रमोशन बहुत ही घटिया सी चीज हैं, मैं तो आपसे मिलना चाहता था कि इस व्यवस्था में सांतसा लागू हो। उसने सांतसा देखी कहा- तुमने बडी ऊंची चीज लिखी है। और उसे दर किनार कर दिया। मैने उसे दर किनार कर दिया वह मुर्दा था।
जो व्यवस्था मुर्द़ों की है, उसमें प्रमोशन किसी एक व्यक्ति के हाथ होता है, जिसे मुर्दे चापलूस अपने हाथ में ले लेते हैं। मृत्यु नहीं अमृत की ओर चलो ऐसी व्यवस्था को हर व्यक्ति द्वारा नकारना ही किसी राष्ट्र की उन्नति का आधार है। जाति-निग्रह उन्मुक्त अवयव (वैज्ञानिक विधि) आधाारित मापदण्ड जिस व्यवस्था में लागू हैं, वह व्यवस्था अमृत है। उसमें एक असन्तुष्ट व्यक्ति भी व्यवस्था संतुष्ट रहता है।
नियमबद्ध तटस्थ व्यवस्था में व्यक्ति व्यवस्था को सर्वव्यापक समीप पाता है। इसलिए आश्वस्त रहता है। तथा सहजता से सब कार्य होते रहते हैं। व्यक्ति तथा व्यवस्था में एक लय स्थापित हो जाती है। तब जो रस स्त्रवित होता है वह सद् रस है, ज्योति रस है, अमृत रस है।
(~स्व.डॉ.त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय)


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