Thursday, October 1, 2015

१५ आश्विन 1 अक्टूबर 2015 😶 “ सब यज्ञों का महान् तत्त्व विश्वतोधार होना !...

१५ आश्विन 1 अक्टूबर 2015

😶 “ सब यज्ञों का महान् तत्त्व विश्वतोधार होना ! ” 🌞

🔥🔥ओ३म् स्वर्यन्तो नापेक्षन्तSआ द्याथ रोहन्ति रोदसी । 🔥🔥
🍃🍂 यज्ञं ये विश्वतोधारँ सुविद्वाथसो वितेनिरे ।। 🍂🍃

यजु० १७ । ६८ ; अथर्व० ४ । १४ । ४

ऋषि:- भृगु: ।। देवता- आज्यम् ।। छन्द:- अनुष्टुप् ।।

शब्दार्थ- जो उत्तम ज्ञानी महापुरुष विश्वतोधार यज्ञ को, सबको सब ओर से धारण करने वाले यज्ञ को विस्तृत करते हैं वे आनन्दमय स्थिति को जाते हुए, किसी अन्य वस्तु की अपेक्षा नहीं करते या नीचे नहीं देखते, वे द्यावापृथिवी का लाँघकर द्युलोक में चढ़ जाते हैं।

विनय:- हमारे सब यज्ञ ‘विश्वतोधार’ होने चाहिएँ, पर प्रायः हमारे यज्ञ एकतोधार होते हैं। इसका अर्थ यह है कि हम दूर तक देखकर, सब संसार को दृष्टि में रखकर लोकोपकार नहीं करते, अतः हमारे ये यज्ञकार्य परिमित, अदूरगामी और एकपक्षीय होते हैं। हम केवल अपने समाज, अपने कुटुम्ब, केवल एक संस्था या केवल अपने देश व राष्ट्र के हित के लिए अपने उपकार-कार्य करते हैं और उनके लिए बड़े-बड़े स्वार्थ-त्याग तक करते हैं, पर यह ध्यान नहीं रखते कि वह संस्थाहित, देशहित, वह राष्ट्रहित संसार के हित के भी अविरुद्ध होना चाहिए। विश्वतोधार यज्ञ वह है जो 'सर्वभूतहित’ के लिए होता है, जो सम्पूर्ण विश्व के भले के लिए, प्राणिमात्र के हित की दृष्टि से होता है, अथवा यूँ कहें कि जो परमात्मा की प्रीत्यर्थ होता है। वही यज्ञ पूरी तरह फैला, वितत होता है, व्यापक होता है। वही यज्ञ 'विष्णु’ कहाता है। पर यज्ञ के इस 'विष्णु’ ,'विश्वतोधार’ रूप को संसार में कुछ उत्तम ज्ञानी ही समझते हैं और ये विरले ही उसे वितत करते हैं, अतः ये 'सुविद्वान्’ तो शीघ्र ही पृथिवी और अन्तरिक्ष के स्थुल और मानसिक लोकों को लाँघकर आत्मा के सुखमय और प्रकाशमय लोक में चढ़ जाते हैं, आसानी से पहुँच जाते हैं। वे उस आत्मिक सुख की ओर जाते हुए, उसका आनन्द लेते हुए दुनिया की किसी भी अन्य वस्तु की परवाह नहीं करते। 'विश्वतोधार’ यज्ञ करनेवालों को 'स्व:'का एक ऐसा दृढ़ अवलम्बन मिल जाता है कि वे फिर संसार के अन्य किसी भी सहारे की तनिक भी अपेक्षा नहीं करते। चाहे उनके साथी उनसे छिन जाएँ, उनका प्रभुत्व नष्ट हो जाए, उनकी सब प्रतिष्ठा जाती रहे, पर वे इन सहारों के रखने के लिए भी कभी अपने यज्ञ को थोड़ी देर के लिए भी छोटा, अव्यापक नहीं करते। वे अपनी दृष्टि को कभी नीची या संकुचित नहीं करते। ऊपर चढ़ते हुए नीचे की क्षुद्र चीज़ों पर कभी उनकी दृष्टि ही नहीं पड़ती। यही रहस्य है जिससे वे ऊपर-ऊपर ही जाते हैं और शीघ्र सुखमय-प्रकाशमय द्युलोक में जा पहुँचते हैं।

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ओ३म् का झंडा 🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩
……………..ऊँचा रहे

🐚🐚🐚 वैदिक विनय से 🐚🐚🐚


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