“इसीलिए ‘मातृमान् पितृमान्’ शब्द का ग्रहण उक्त वचन में किया है अर्थात् जन्म से 5वें वर्ष तक बालकों को माता, 6 वर्ष से 8वें वर्ष तक पिता शिक्षा करें और 9वें वर्ष के आरम्भ में द्विज अपने सन्तानों का उपनयन करके आचार्य कुल में अर्थात् जहां पूर्ण विद्वान् और पूर्ण विदुषी स्त्री शिक्षा और विद्यादान करने वाली हों वहां लड़के और लड़कियों को भेज दें और शूद्रादि वर्ण उपनयन किये विना विद्याभ्यास के लिये गुरुकुल में भेज दें।”
नरेश कुमार जी
ये उपरोक्त शब्द अपने स्वामी दयानंद जी द्वारा लिखित पुसतक सत्यार्थ प्रकाश के सन्दर्भ से दिए हैं। मैं भी मानता हूँ की ये पूरा पोस्ट ही सत्यार्थ प्रकाश के उक्त सन्दर्भ से लिया गया है। वैसे तो इस पूरी पोस्ट में ही ज्ञान वर्धन करने हेतु बहुत कुछ कहा या लिखा जा सकता है।
मैंने जब और जिस आयु में सत्यार्थ प्रकाश पढ़ा था वो बात तो बहुत पुरानी हो गयी शंकाएं बहुत समय से हैं, आज आपकी पोस्ट को पढ़कर कुछ लिखने की सूझी सो इस प्रकार है :-
स्वामी दयानंद भी मनुस्मृति को प्रमाण मानते हैं और उसमें likha गया है :-
“जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद्द्विज उच्यते।”
अर्थात जन्म से सभी मनुष्य शूद्र के रूप में ही पैदा होते संस्कारों के द्वारा ही वो द्विज (ब्राह्मण क्षत्रिय या वैश्य) बनते हैं।
फिर यहां वही स्वामी दयानंद ऐसा कैसे लिख रहे हैं कि “द्विज अपने सन्तानों का उपनयन करके आचार्य कुल में……और शूद्रादि वर्ण उपनयन किये विना ……….गुरुकुल में भेज दें।”
शूद्र कौन है ये कौन तय करेगा वैसे द्विज आदि के संतान भी तो शूद्र ही पैदा हुए हैं मनुस्मृति के अनुसार, फिर तो किसी का भी उपनयन नहीं होना चाहिए चूंकि सभी तो शूद्र ही हुए।
उपनयन संस्कार करने के बाद ही तो शूद्रत्व को त्यागकर द्विज बनता है।
ये मैं नहीं कह रहा स्वयं मनु महाराज ने कहा है और स्वामी दयानंद सरस्वती को भी जितना मैंने समझा है स्वयं उनका भी यही मत है।
पता नहीं कैसे इस स्थान पर स्वामीजी ने ऐसा मंतव्य प्रदर्शित कर दिया।
👆मेरे एक मित्र कि शंका का समाधान करे जी,🙏
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