ओ३म ।
🌹 वैदिक विनय—51 🌹
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👉ऋग्वेद:-8/102/22; सामवेद पू. 1/½/9; ऋषि: बहीसप्तय:। देवता अग्नि:। छंद: निचरद गायत्री।
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👉अग्निमिन्धानो मनसा धियम सचेत मर्त्य: । अग्निमिघे विवसभि:।।
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👉शब्दार्थ:– मन द्वारा अग्नि को; आत्मा को प्रज्वलित करता हुआ मनुष्य सद्बुद्धि को और सतकर्म को प्राप्त करें। मैं तम को हटाने वाली ज्ञान किरणों द्वारा इस अग्नि को प्रदीप्त करता हूँ।
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👉सरल रहस्य विनय:- लेखक:– राजिंदर वैदिक । 👏
साधक जब आत्मा को अपने शरीर के अंदर जानने के लिए “उपासना योग यज्ञ (ब्रह्मयज्ञ) का अभ्यास करता है; तो प्रारम्भ में उसके अंदर ऐसी ज्ञान की अग्नि जगनी चाहिए; की जिसमें नाना प्रकार के मत–पन्थो के सत्य; आर्ष ग्रन्थो की आहुति आ जावे; अर्थार्त उन पर गहराई से विचार करके उन द्वारा दिए सिद्धान्तों का पालन करें। अब सबसे पहले आत्मज्ञान की पहचान करने के लिए शुद्ध बुद्धि; सद बुद्धि की आवश्यकता है; जो हमें तमोगुण और रजोगुण को दबाने से ; त्यागने से मिलती है। इन दोनों को दबा कर तुम्हें सात्विक गुण अच्छा लगने लगेगा। तब तुमारा ध्यान टिकने लगेगा; तब तुम्हें अपने शरीर के अंदर अनेक अनुभूतिया होने लगेगी। तब एक दिन तुम सात्विक गुण से भी पार होकर अपनी आत्मा की पहचान करोगें। अपनी शुद्ध बुद्धि में उसका प्रकाश साक्षात् देखोगें।। तब समझों तुमाहरा उपासना योग यज्ञ सिद्ध हुआ; सफल हुआ। फिर आप इस किर्या–अभ्यास में बार–बार जावोगें; अब तुम्हरा संसार में मन नही जायेगा। उससे तुम्हारी आसक्ति समाप्त हो जायेगी। अन्य साधारण लीगों को लगेगा की तुम संसार के सारे कार्य कर रहे हो; लेकिन तुम्हरी उन कार्यो को करते हुए भी उनसे आसक्ति समाप्त हो चुकी।। क्योंकि अब मन ने शाश्वत आनंद का स्वाद चख लिया। अब मन बार–बार मस्तिस्क के आकाश में आत्मा को; चेतना को; रूह को उदीपन करेगा; परजलवित करेगा; ऊपर की और समेटेगा; और हर बार के अभ्यास में आप में कुछ न कुछ बदलाव होता जायेगा। आपकी साधारण बुद्धि का विकास होकर सद्बुद्धि हो जायेगी और आप से बार–बार उपासना योग यज्ञ अभ्यास रूपी सतकर्म होता जायेगा। इस योग यज्ञ में जो आत्मा का प्रकाश मस्तिस्क के आकाश में चमकता है; उससे तमो का; विकारों का; मन की चंचलता का नाश हो जाता है और साधक शांतस्वरूप ; आनंदस्वरूप। हो जाता है। इसलिए इस मन्त्र का ऋषि कह उठता है की मैं मन द्वारा ज्ञानाग्नि को; आत्मा को परजलवित करता हुआ सतकर्म को प्राप्त करता हूँ और तमो को; अज्ञान को हटाता हूँ। क्योंकि इसी उपासना योग यज्ञ अभ्यास के द्वारा ही आप इस आत्मा को जान सकते है। अन्य किसी भी प्रकार से जानना कठिन है। हमारे शास्त्रों में लिखा है की "आत्मज्ञान” किसी बिरले साधक को प्राप्त होता है। क्योंकि यह ज्ञान इतना सूक्ष्म है की इसको सुनकर; पढ़ कर किसी प्रकार भी जाना नही जा सकता है। यह तो स्वयं अभ्यास से; अपने तीसरें नेत्र को खोल कर मस्तिस्क के आकाश में ही इसे देखा जाता है; जाना जाता है।
👉ओ३म तत्सत्। राजिंदर वैदिक 👏
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