प्रश्न:-क्या वेदों में मांसाहार है?
उत्तर:-वेदों में मांसाहार बिलकुल नहीं। अगर मांसाहार होता तो कृष्णा को हम गोपाल नहीं कहते कुछ और कहते।
जैसा की आपने देखा हमारी पिछले लेख में सिद्ध किया गया था की आर्य विदेशी नहीं। बल्कि भारत के ही मूलनिवासी और आदिवासी है। उसी तरह जितनी कमज़ोर नीव पर आर्यो के आक्रमणकारी होने का कागज़ी महल टिका था,उससे भी कमज़ोर नीव पर उनके मासाहारी व् पशुबलि(घोड़े,गाय आदि) देने का विचार टिका है। प्राणिमात्र को आत्मा के रूप में व् मित्र की दृष्टि से देखने वाले आर्य(यजुर्वेद 36/18) कैसे किसी प्राणी को मारकर खा सकते थे?
आर्यो के ग्रन्थ में तो छोटे से छोटे जीव को भी न मारने का विधान है और गाय व् घोड़े को मारने वाले को गोली से उदा देने का आदेश दिया है। देखए—
यदि नो गां हंसि यज्ञाश्रवः यदि पुरुषम्। तं त्वा सीसेन् विध्याम…….।।
(अथर्वेद 1-16-4) ऋग्वेद मण्डल 10 ,सूक्त 87, मंत्र 16 के अनुसार मनुष्य और घोड़े आदि पशुओ के मांस से रंगरलिया मनाने वाले को राक्षस कहा है। और उसका सर काटने का आदेश है। वेदों में यज्ञो के लिए एक शब्द अघ्वर(हिंसा रहित) आया है और गाय को “अघ्रया”(जिसका वध न किया जा सके) कहा है।यजुर्वेद की निम्र वाक्यो में भी अहिंसा और प्रत्येक प्राणी के लिए असीम प्रेम व् सहानभूति दर्शायी है–पशून् पाही।।गां मा हिंसीः।।अजा मा हिंसीः।।इमं मा हिंसी द्विपादः पशुम्।। मा हिंसीरकश्फ़ पशुम्।।मा हिंस्यात् सर्वभूतानि।। अर्थात पशुओ की रक्षा करो। गाय,बकरी,भेड़ को मत मारो। दो पैर वाले मनुष्य और पक्षीयो को मत मारो।एक खुर वाले घोड़े-गधे को मत मारो और किसी भी प्राणी को मत मारो।"
इतना स्पष्ट होते हुए भी स्वार्थी व् जिह्वा लोलुप धूर्तो ने महाभारत काल के लगभग यज्ञो में पशुहिंसा का प्रचलन कर दिया। यह राक्षसी प्रचलन था,आर्यो का नहीं। तभी तो महर्षि विश्वामित्र अपने यज्ञ की रक्षा के लिए राम-लक्ष्मण को लेकर गए थे,क्योंकि राक्षस उनके यज्ञ में मांस फेकते थे। यज्ञ के प्रसंग में जहाँ कही पशु शब्द से सम्बन्ध रखने वाले नाम आए है,उनका तात्पर्य अन्न से है,चतुष्पाद पशु से नहीं। अथर्वेद में लिखा है—
धाना धेनुरभवद्वतसौsस्यास्तिलोsभवत्। (अथर्वेद 18/4/32)
ऐनीधाना हरिणी श्येनिरस्या कृष्णा धाना रोहिणीधरेन्वस्तो। तिलवत्सा ऊजमस्मे।।34।।
अश्वा कणा गावस्तनडूला मशकास्तुषा ।। (अथर्वेद 11/3/5)
श्याममयोsस्य मांसानि लोहितमस्य लोहितम्। (7)
अर्थात धान ही धेनु है और तिल उसके बछड़े है। हरिणी,श्येनि, कृष्णा और रोहिणी आदि धान धेनु है। इनके तिल रूपी बछड़े हमे बल दे। चावल के कण अश्व है,चावल गौ है,भूसी मशक है। चावल का श्याम भाग मांस और लाल भाग रुधिर है। “जबकि आयुर्वेद में ये पशु संज्ञक नाम तथा अवयव वनस्पतियो तथा विशेष औषधिया के वाचक है। फिर भी स्वार्थी राक्षसो ने यज्ञ में मांस का विधान किया। महाभारत में खुली घोषणा है-
श्रूयते हि पूरा कल्पे नृणां ब्रीहिमयो पशुः।
येनायजन्त यजवान् पुन्यलोकपरायणा। (महा•अनु•)
सूरा मत्स्या पशोमारस्मास्व कृशरौदनम्।
धुर्तेपरवर्तित यज्ञे नैतद् वेदेषु विद्यते ।। (महा•शान्ति)
अजेह् यज्ञेषु यष्टव्यमिति वै वैदिकी श्रुतिः।
अजसंज्ञानि बिजानि छागाननो हन्तुमहरथ ।। (शांति,अ•337)
अर्थात पूर्वकाल में याज्ञीक लोग अन्न से ही यज्ञ करते थे। मद्यमांसादि का प्रचार तो धूर्तो ने किया है। वेदों में यह कही नहीं है। यज्ञो में अजो(पुराने बीजो) से आहुति डालनी चाहिए,यह वैदिक श्रुति है। अज़ का अर्थ बकरा नहीं है। पशुओ की हत्या करना भले आदमियो का धर्म नहीं है-नेष् धर्मः सता देवाः यत्र वध्यते वै पशुः।।
महर्षि दयानंद ने लिखा है-”(अश्वमेध,गोमेध,नरमेध आदि) इनका अर्थ तो यह है की राष्ट्र वा अश्वमेध।अन्न हि गौ ।अग्रवा अशवः।आज्यं मेध।।शतपथब्राह्मण।।घोड़े,गाय,आदि पशु तथा मनुष्य मार के होम करना कही नहीं लिखा। केवल वाममार्गियो के ग्रंथो में ऐसा अनर्थ लिखा है। किन्तु यह बात वाममार्गियो ने चलाई और जहाँ जहाँ लेख है,वहाँ वहाँ भी वाममार्गियो ने प्रक्षेप किया है। देखो राजा न्याय धर्म से प्रजा का पालन करे,विद्यादि का देने हारा यजमान और अग्रि में घी आदि का होम करना अश्वमेध,अन्न,इन्द्रियाँ,किरण,पृथ्वी आदि को पवित्र रखना गोमेध ,जब मनुष्य मर जाय,तब उसके शरीर का विधिपूर्वक दाह करना नरमेध कहाता है।
इन सब प्रमाणों से स्पष्ट है कि आर्य लोग न तो आक्रमणकारी विदेशी थे, न मासभक्षि थे और न ही यज्ञो में पशु को मारकर आहुति थे। विषय के अनुसार व् प्रसंग के अनुसार शब्दों के अनेक अर्थ होते है। अतः स्वार्थी लोगो ने जीभ का स्वाद पूरा करने के लिए यज्ञो में मांसाहार का प्रचलन किया था,आर्यो ने नहीं।
नोट:-कम से कम एक बार सत्यार्थ प्रकाश स्वामी दयानंद द्वारा रचित अवश्य पढ़े।
नमस्ते।
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