[5:19pm, 09/10/2015] भूपेश सिंह आर्य: 🌹🌹🌹ओ३म्🌹🌹🌹
भूपेश आर्य~८९५४५७२४९१
श्रीराम ईश्वर के अनन्य भक्त थे।वे सन्ध्या करते थे।
रामायण के श्लोक देखिये-
१.कुमाराविव तां रात्रिमुषित्वा सुसमाहितौ।
प्रभातकाले चोत्थाय पूर्वां
सन्ध्यामुपा्य च।
प्रशुची परमं जाप्यं समाप्य नियमेन च ।।बाल० २९ सर्ग ।।
अर्थात् विश्वामित्र के आश्रम मेमं
[5:29pm, 09/10/2015] भूपेश सिंह आर्य: अर्थात् विश्वामित्र के आश्रम में राम लक्ष्मण ने प्रात:उठकर तथा शुद्ध होकर नियमित रुप से सन्ध्या व जप की विधि पूर्ण की,तत्पश्चात् विश्वामित्र को अभिवादन किया।
२.तस्यर्षें: परमोदारं वचं
[6:47pm, 09/10/2015] भूपेश सिंह आर्य: २.तस्यर्षें: परमोदारं वच: श्रुत्वा नरोत्तमौ।
स्नात्वा क्रतोदकौ वीरो जेपतु: परमं जपम् ।।बाल० २३ सर्ग ।।
अर्थात् मनुष्यों में श्रेष्ठ राम-लक्ष्मण ने विश्वामित्र के वचन सुनकर स्नानादि कार्यों से निव्रत्त होकर जपोपासना की।
३.एकायामवशिष्टायां रात्र्यां प्रतिबुध्य स: ।।
पूर्वं सन्ध्यामुपासीनो जजाप सुसमाहित: ।। बाल० ६ सर्ग।
अर्थात् (राज्याभिषेक से पूर्व वशिष्ठ मुनि के उपदेश के बाद)श्री राम ने प्रात: ब्रह्ममुहूर्त में उठकर एकाग्र मन से प्रात:कालीन सन्ध्या व जप किया।
४.रामस्यास्तं गत: सूर्य सन्ध्याकालोअभ्यवर्तत ।।
उपास्य पश्चिमां सन्ध्यां सह भ्रात्रा यथाविधि ।। अरण्य० ११ सर्ग ।।
अर्थात् वशिष्ठ मुनि के आश्रम में पहुंचने पर राम लक्ष्मण दोनों ने सन्ध्याकाल में सायंकालीन सन्ध्या की तत्पश्चात् वशिष्ठ मुनि को अभिवादन किया।
श्रीराम महापुरुष थे,ईश्वर के अवतार नहीं-
श्रीराम ने अपने को मनुष्य ही स्वीकार किया है,देखिये-
आत्मानं मानुषं मध्ये रामं दशरथात्मजम् ।। युद्ध काण्ड ११७ सर्ग ।।
अर्थात् मैं अपने को मनुष्य ही मानता हूं।और राजा दशरथ का पुत्र हूं।
सीता हरण पर श्रीराम दु:खी होकर कहते हैं-
पूर्व मया नूनमभीप्सितानि पापानि कर्माण्यसत्क्रतानि ।।(अरण्य काण्ड ६३ सर्ग)
अर्थात् मैंने पूर्व जन्म में बार बार ऐसे दुष्कर्म किये थे जो मुझे निरन्तर दु:ख भोगने पड रहे हैं।
३.किं मया दुष्क्रतं कर्म क्रतमन्यत्र जन्मनि ।
येन मे धार्मिको भ्राता निहतश्चाग्रत: स्थित ।।
(युद्ध काण्ड १०१ सर्ग)
अर्थात् लक्ष्मण को मूर्छित देखकर अत्यन्त दु:खी होकर श्रीराम कहते हैं कि मेरे पूर्व जन्म में ऐसा कोई दुष्कर्म हो गया है,जिसका फल यह है कि मैं अपने धार्मिक भाई को म्रत प्राय: देख रहा हूं।
४.यत्कर्तव्यं मनुष्येण धर्मणां परिमार्जता ।
तत्क्रतं सकलं सीते शत्रुहस्तादमष्रणात् ।।
(युद्ध काण्ड सर्ग ११५)
अर्थात् रावण वध के पश्चात् राम ने सीता से कहा-हे सीता ! मैं मनुष्य होता हुआ जो कुछ कर सकता था,वह सब मैनें किया।और यह अच्छा ही रहा कि शत्रुओं के हाथ से कभी घर्षित नहीं हो सका।
इत्यादि रामायण के प्रसंगों से स्पष्ट है कि श्रीराम स्वयं अपने को मनुष्य ही मानते थे।जन्म जन्मान्तरों में शुभ व अशुभ कर्मों के ईश्वरीय व्यवस्था से मिले शुभाशुभ फलों में भी पूर्ण विश्वास रखते थे।
और जिसका जन्म होता है,वह ईश्वर या ईश्वरावतार तो कभी हो ही नहीं सकता।
क्योंकि पूर्व क्रत कर्मों के फलस्वरुप ही जन्म मिलता है।
रही बात शिवलिंग की तो श्रीराम के समय में उस लिंग या मन्दिर का नाम चिन्ह भी न था।किन्तु यह ठीक है कि दक्षिण देशस्थ राम नामक राजा ने मन्दिर बनवा लिंग का नाम रामेश्वर धर दिया था।
जब रामचन्द्र जी सीता जी को ले हनुमान आदि के साथ लंका से आकाश मार्ग में विमान पर बैठ अयोध्या को जाते थे,तब सीता जी ने कहा था-अत्र पूर्व महादेव: प्रसादमकरोद् विभु:।
हे सीते ! तेरे वियोग में हम व्याकुल होकर घूमते थे और इसी स्थान पर चातुर्मास किया था और परमेश्वर की उपासना ध्यान भी करते थे।
वही जो सर्वत्र विभु=व्यापक देवों का देव महादेव परमात्मा है,उसकी क्रपा से हमको सब सामग्री यहां प्राप्त हुई।
इसके सिवाय यहां बाल्मीकि ने ऐसा कुछ नहीं लिखा कि श्रीराम ने शिवलिंग की स्थापना की।
शतपथ ब्राह्मण काण्ड १४ में स्पष्ट निर्देश दिया है-
योअन्यां देवतामुपास्ते पशुरेव स देवानाम् ।।
जो एक परमेश्वर को छोडकर अन्य किसी की उपासना करता है,वह मनुष्यता से गिर जाता है।
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