अन्नहीनो दहेद् राष्ट्रम् मन्त्रहीनश्च ऋत्विज:।
यजमानम दानहीनो नास्ति यज्ञसमो रिपु:।।(चाणक्य नीति)
अर्थ-अन्नहीन यज्ञ राष्ट्र को,यज्ञ ऋत्विज(यज्ञ करानेवाले पुरोहितों,आचार्यों) को और दानहीन यज्ञ यजमान को भस्म कर देता है। संसार मे यज्ञ के समान कोई शत्रु नही है।
विमर्श-यज्ञ कामधेनु है,कल्पवृक्ष है परन्तु विधि विधान से न करने पर यज्ञ शत्रु बन जाता है। महाराज दशरथ ने कहा था-
विधिहीनस्य यज्ञस्य कर्ता सद्य विनश्यति।
अर्थात-विधिहीन यज्ञ करनेवाला शीघ्र नष्ट हो जाता है
श्री कृष्ण कहते है-
विधिहीनमसृष्टान्नम् मन्त्रहीनमदक्षिणम्।
श्रद्धाविरहितम यज्ञम् तामसम् प्रचक्षते।।
अर्थ-जो शास्त्र विधि से रहित हो, जिसमे लोककल्याणार्थ अन्न दान न दिया गया हो, जिसमे वेदमन्त्रों का उच्चारण न किया गया हो,जिसमे यज्ञ करानेवालो को दक्षिणा न दी गई हो ओर अश्रद्धा से किया गया हो,ऐसे यज्ञ को तामस यज्ञ कहते है।
ऐसे यज्ञ लाभकारी नही है। विधि-विधान से किये हुए यज्ञ इस लोक मे मनुष्य को धन-धान्य से सम्पन्न बनाते है और अन्त मे मोक्ष मे पहुंचते है।
(विदुषामनुचर:विकास:)
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