Rajinder Kumar Vedic
ओउम
विषय: गीता में वर्णित सर्वोत्कृस्ट तत्व (कर्मयोग) (भाग-41)
लेखक: राजिंदर वैदिक
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(गीता अ.9 /20)क्योकि हे अर्जुन! सब भूतो के भीतर रहने वाला “आत्मा” —परमात्मा ही है. और सब भूतो का आदि, मध्य और अंत भी परमात्मा ही है.(गीता.अ.9 /39 से 42 ) सब भूतो के जो कुछ बीज है, वह परमात्मा ही है. ऐसा कोई चर-अचर भुत नही है,जो परमात्मा को छोड़े हो. परमात्मा की दिव्य विभूतियों का अंत नही है. जो-जो वस्तु वैभव , लक्ष्मी या प्रभाव से युक्त है, उसको तू परमात्मा के तेज के अंश से उपजी हुई समझ. और तो क्या तुम यह ही संक्षेप से समझ की परमात्मा ही अपने एक अंश से इस सारे जगत को व्याप्त कर रहा है.(गीता.अ.11 /52से 54 ) परमात्मा के इस स्वरूप को सिर्फ कर्मयोगी ही अपने अन्तर में जाकर देख सकता है. परमात्मा के इस रूप का दर्शन मिलना बहुत कठिन है. देवता भी इस रूप को देखने की सदैव इच्छा किये रहते है. ऐसा स्वरूप मेरा वेदो से, तप से, दान से अथवा यज्ञ से भी नही देख सकता. केवल अनन्य भक्ति से ही इस प्रकार परमात्मा का ज्ञान होगा. इसी कर्मयोग-युक्ति से ही परमात्मा को देखना और परमात्मा में तत्व से प्रवेश करना सम्भव है. जो कर्मयोग की बुद्धि से कर्म करता है, अर्थार्त समता से, साम्य से, निष्कामभाव से, आसक्ति रहित होकर कर्म करता है और सब कर्म परमात्मा के अर्पण करता है. जो सदा मन, बुद्धि , प्राणो सहित परमात्मा में विश्राम करता है. जो संगविरहित है और सब प्राणियों के विषय में निर्वैर है. वह परमात्मा का भगत परमात्मा में ही मिल जाता है. (गीता .अ.12 /2 ) श्री कृष्ण जी स्पस्ट करते है की जो परमात्मा में मन लगाकर सदा युक्तचित्त हो करके, परम श्रद्धा से जो परमात्मा की उपासना करते है, वे सबसे उत्तम युक्त है अर्थार्त योगी है. अर्थार्त जो अपनी इन्द्रियों, मन, बुद्धि,,प्राणो को अपने अन्तर में जाकर आज्ञा चक्र (तीसरे नेत्र) में निग्रह करता है, ठहराता है. व्ही अभ्यास करते-करते एक दिन अपनी आत्मा को परमात्मा से मिलान करवाता है. व्ही सबसे उत्तम कर्मयोगी है. —क्रमश
—–राजिंदर वैदिक
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