Tuesday, October 13, 2015

२८ आश्विन 14 अक्टूबर 2015 😶 “दिव्य दर्शनीय महाकाव्य ! ” 🌞 🔥🔥 ओ३म् अन्ति...

२८ आश्विन 14 अक्टूबर 2015

😶 “दिव्य दर्शनीय महाकाव्य ! ” 🌞

🔥🔥 ओ३म् अन्ति सन्तं न जहात्यन्ति सन्तं न पश्यति। 🔥🔥
🍃🍂 देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति ।। 🍂🍃

अथर्व० १० । ८ । ३२

ऋषि:- कुत्स: ।। देवता- आत्मा: ।। छन्द:- अनुष्टुप् ।।

शब्दार्थ- मनुष्य सदा समीप ही विद्यमान (परमात्मदेव) को कभी त्यागता नहीं, उससे पृथक् नहीं होता और समीप ही विद्यमान उसे देखता भी नहीं।
हे मनुष्य!
उस परमात्मदेव के काव्य को देख, जो काव्य कभी मरा नहीं, मरता नहीं और जो कभी जीर्ण नहीं होता, पुराना नहीं होता।

विनय:- मनुष्य परमेश्वर को कभी त्याग नहीं सकता, कभी उससे जुदा नहीं हो सकता, क्योंकि यह परमेश्वर के इतना घनिष्ठ सम्बन्ध से जुड़ा है कि परमात्मा उसकी आत्मा की आत्मा है, पर आश्चर्य है कि इतना निकट होता हुआ भी वह परमात्मा को देखता नहीं है। अथवा इसमें आश्चर्य करने की क्या बात है? वह इतना निकट है इसीलिए उसे वह नहीं देख सकता। जब आँख अपनी पुतली को नहीं देख सकती तो अपने को शक्ति देनेवाले परमात्मा को आत्मा कैसे देखे?
इसीलिए हे मनुष्य!
यदि तू अपने परमात्मा को आँखों से ही देखना चाहता है तो तू उसके काव्य को देख। गुणों के देखने से ही गुणी देखा जाता है। तू उसके इस दृश्य महाकाव्य में उसके दर्शन कर। देख उसका यह दृश्यकाव्य हर समय चल रहा है, खेला जा रहा है। इस दृश्यकाव्य का पुस्तक वेद है, पर उसका अभिनय यह सब चलता हुआ दृश्यमान संसार है। मनुष्यकृत नाटक को एक-दो बार देख लेने पर वह पुराना हो जाता है और वह समाप्त तो हो ही जाता है, परन्तु यह ईश्वरीय काव्य न तो कभी समाप्त होता है और न कभी पुराना होता है, न कभी मरता है और न कभी जीर्ण होता है, क्योंकि इसका रचयिता भी न कभी मरनेवाला है और न कभी बुड्ढा होनेवाला है। उससे निरन्तर नित्य नया निकलता हुआ यह काव्य सदा चल रहा है। हे मनुष्य! तू सदा इसको देखता हुआ इसी में अपने परमात्मदेव का हर घड़ी और हर पल दर्शन किया कर।

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ओ३म् का झंडा 🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩
……………..ऊँचा रहे

🐚🐚🐚 वैदिक विनय से 🐚🐚🐚


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