Rajinder Kumar Vedic
“वैदिक ज्ञान” (भाग-3 )
लेखक : राजिंदर वैदिक
मुण्डकोपनिषद : द्वितीय मुण्डक मन्त्र:1 ,2 ,11 ,“ हे प्रिय ! वह सत्य है. जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि में से उसी के समान रुपवाली हजारों चिंगारियों नाना प्रकार से प्रकट होती है, उसी प्रकार अविनाशी ब्रह्म से नाना प्रकार के भाव उत्पन्न होते है और उसी में विलीन होते है. निश्चय ही दिव्य पूर्ण पुरुष आकररहित समस्त जगत के बाहर और भीतर भी व्याप्त है, जन्म आदि विकारो से अतीत है, प्राणरहित है, मन रहित होने के कारण सवर्था विशुद्ध है. इसलिए अविनाशी जीवात्मा से अत्यंत श्रेष्ठ है. यह अमृतस्वरूप परब्रह्म ही सामने है, ब्रह्म ही पीछे है, ब्रह्म ही दायी और तथा बायीं और, नीचे की और तथा ऊपर की और भी फैला हुआ है, यह जो सम्पूर्ण जगत है, यह सर्वश्रेष्ठ ब्रह्म ही है.
"कठोउपनिषद: तृतीय वल्ली :मन्त्र;15 ,” जो शब्दरहित है, स्पर्शरहित है, रुपरहित है, रसरहित और बिना गंध वाला है तथा जो अविनाशी है, नित्य है, अनादि है, अनंत (असीम) है, महान आत्मा से श्रेष्ठ एवं सवर्था सत्य तत्व है, उस परमात्मा को जानकर मनुष्य मृत्यु के मुख से सदा के लिए छूट जाता है.
“कठोउपनिषद: द्वितीय अध्याय: प्रथम वाली: मन्त्र:6 ,12 ,14 ,” जो जल से पहले हिरण्यगर्भ रूप में प्रकट हुआ था , उस सबसे पहले तप से उत्पन्न ह्रदय-गुफा में प्रवेश करके जीवात्माओं के साथ स्थित रहने वाले परमेस्वर को जो पुरुष देखता है, व्ही ठीक देखता है. (६) अंगूष्ठमात्र परिणाम वाला परमात्मा शरीर के मध्य भाग हृदयाकाश में स्थित है, जो की भुत, वर्तमान और भविष्य का शासन करने वाला है, उसे जान लेने के बाद वह किसी की भी निंदा नही करता (१२) जिस प्रकार ऊँचे शिखर पर बरसा हुआ जल पहाड़ के नाना स्थलों में चारों ओर चला जाता है, उसी प्रकार भिन्न -भिन्न धर्मो (स्वभावो) से युक्त देव, असुर, मनुष्य आदि को परमात्मा से पृथक देखकर, उनका सेवन करने वाला मनुष्य उन्ही के पीछे दौड़ता रहता है. उन्ही के शुभ-अशुभ लोको में ओर नाना उंच-नीच योनियों में भटकता रहता है. (१४) परन्तु जिस प्रकार निर्मल जल में मेघो द्वारा सब ओर से बरसाया हुआ निर्मल जल वैसा ही हो जाता है, उसी प्रकार हे गौतम वंशी नचिकेता ! एकमात्र परब्रह्म ही सब कुछ है, इस प्रकार जानने वाले मुनि का संसार से उपरत हुए महापुरष का आत्मा ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है.
क्रमश: ——राजिंदर वैदिक
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