Thursday, January 8, 2015

चौदह वर्षों तक वन में जिसका धाम था।। मन-मन्दिर में बसने वाला शाकाहारी राम था।। चाहते तो खा सकते...

चौदह वर्षों तक वन में

जिसका धाम था।।


मन-मन्दिर में बसने

वाला शाकाहारी राम था।।


चाहते तो खा सकते थे

वो मांस पशु के ढेरो में।।


लेकिन उनको प्यार मिला

’ शबरी’ के झूठे बेरो में॥


चक्र सुदर्शन धारी थे

गोवर्धन पर भारी थे॥


मुरली से वश करने वाले

‘गिरधर’ शाकाहारी थे॥


पर-सेवा, पर-प्रेम का परचम

चोटी पर फहराया था।।


निर्धन की कुटिया में जाकर जिसने मान बढाया था॥


सपने जिसने देखे थे

मानवता के विस्तार के।।


नानक जैसे महा-संत थे

वाचक शाकाहार के॥


उठो जरा तुम पढ़ कर

देखो गौरवमयी इतिहास को।।


आदम से गाँधी तक फैले

इस नीले आकाश को॥


दया की आँखे खोल देख लो

पशु के करुण क्रंदन को।।


इंसानों का जिस्म बना है

शाकाहारी भोजन को॥


अंग लाश के खा जाए

क्या फ़िर भी वो इंसान है?


पेट तुम्हारा मुर्दाघर है

या कोई कब्रिस्तान है?


आँखे कितना रोती हैं

जब उंगली अपनी जलती है।।


सोचो उस तड़पन की हद

जब जिस्म पे आरी चलती है॥


बेबसता तुम पशु की देखो

बचने के आसार नही।।


जीते जी तन काटा जाए,

उस पीडा का पार नही॥


खाने से पहले बिरयानी,

चीख जीव की सुन लेते।।


करुणा के वश होकर तुम भी शाकाहार को चुन लेते॥


शाकाहारी बनो…!

।।.शाकाहार-अभियान.।।

सुमित आर्य

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