ओ३म्
ईश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना- मन्त्र-
दैनिक संध्या(ईश्वर ध्यान) में यह ८ मन्त्र आते हैं |
सभी आर्यो को ये मन्त्र अर्थ सहित कंठस्त होने
चाहिए और गायत्री मन्त्र के साथ-२ इन
मंत्रो का जाप करना चाहिए |
कल्याणकारी परमात्मा सदैव सहायक रहता हैं
यदि ह्रदय से उसका ध्यान किया जाए | यदि संभव हो सके तो
नित्य इन्ही मंत्रो से होम
भी करना चाहिए | हमारा निवेदन उन लोगो से
हैं जो वैदिक मंत्रो से दूर हैं उन्हें नित्य कर्म
विधि के मंत्रो से अव्गात कराना हमारा प्रथम
ध्येय हैं | इसलिए
संध्या का ईश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना प्रकरण ही दे रहे हैं |
शनैः-२ हम और मन्त्र भी यहाँ पर
प्रकाशित करेंगे | मंत्रो के भाष्य महर्षि दयानंद
के प्रस्तुत किये जा रहे हैं |
1. ओ३म्। विश्वा॑नि देव सवितर्दुरि॒तानि॒ परा॑ सुव।
यद् भ॒द्रन्तन्न॒ आ सुव ॥१॥ यजुर्वेद० ३०।०३
(अर्थ – हे (सवितः) सकल जगत् के उत्पत्तिकत्-र्ता, समग्र
ऐश्वर्ययुक्त (देव)शुद्धस्वरूप, सब सुखें कें दाता परतेश्वर! आभ कृपा
करके (नः) हमारे (विश्वानि) सम्पुर्ण (दुरितानि) दुर्गुण, दुव्-
र्यसन और दुःखों को (परा, सुव) दुर कर दूजिए, (यत्)जो (भद्रम्)
कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव आर पदार्थ है (तत्)वह सब हमको
(आ, सुव) प्रप्त कीजिए॥१॥)
2. हि॒र॒ण्य॒गर्भः सम॑वत्-र्त॒ताग्रे॑ भूतस्य॑
जातः पति॒रेक॑ आसीत्।
स दा॑धार पृथि॒वीन्ध्यामुतेमाक्ङस्मै॑ दे॒वाय॑
ह॒विषा॑ विधेम।२॥ यजुर्वेद० १३।२
((अर्थ) – जो (हिरण्यगर्भः) स्वप्रकाशस्वरूप आर जिसने प्रकाश
करने-हारे सुर्य-
चन्द्रमादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये है,
जो (भुतस्य)उत्पन्न हुए सम्पुर्ण जगत् का (जातः) ;प्रसिद्ध
(पतिः) स्वामी (एकः) एक ही चेतन- स्वरूप (आसोत्) था, जो
(अग्रे) सब जगत् के उत्पन्न होने से पुर्व (समवत्-र्तत) वर्तमान था,
(सः) सो (इमाम्) इस(पृथिवीम्) भुमि (उत)आर (ध्याम्) सुर्यादि
को (दाधार) धारण कर यहा है, हम लोग उस(कस्मै)सुखस्वरूप
(देवाय) शुद्ध परमात्मा के लिए (हविषा) ग्रहण करने योग्य
योगाभ्यास और अतिप्रेम से (विधेम) विशेष भकि्त किया करें॥
२॥)
3. य आ॑त्म॒दा ब॑ल॒दा यस्य विश्व॑ उ॒पास॑ते प्र॒शिषं॒ यस्य॒
दे॒वाः ।
यस्य॒ छा॒याऽमृतं॒ यस्य मृत्युः कस्मै॑ दे॒वाय॑
ह॒विषा॑ विधेम ॥३॥ – यजु० २५।१
(अर्थ – (यः) जो (आतमदाः)आत्मज्ञान का दाता, (बलदाः)
शरीर, आत्मा और समाज के बल का देनेहाया, (यस्य)जीसकी
(विश्वे) सब(देवाः) विद्धान् लोग (उपासे) उपासना करते हैं, और
(यस्य)जिसका (प्रशिषम्) प्रत्यक्ष, सत्यस्वरूप शासन और न्याय
अर्थात शिक्षा को मानते हैं, (यस्य)जिसका (छाया) आश्रय हू
(अमृतम्) मोक्षसुखदायक है, (यस्य)जिसका न मानना अर्थस्
भकि्त न करना ही(मृत्युः) मृत्यु आदि दुःख का हेतु है, हम लोग
उस(कस्मै)सुस्वरूप (देवाय) सकल ज्ञान के देनेहारे परमास्मा की
लिए (हविषा) आस्मा और अन्सःकरण से (विधेम) भकि्स अर्थात्
उसी की आ ज्ञा पालन में सस्पर रहें॥३॥)
4. यः प्रा॑ण॒तो नि॑मिष॒तो म॑हि॒त्वैक
इद्राजा॒ जग॑तो ब॒भूव॑ ।
य ईशे॑ऽअ॒स्य व्दिपद॒श्पदः कस्मै॑ ढे॒वाय॒
ह॒विषा॑ विधेम ॥४॥यजु० २३ ।
(अर्थ – (यः) जो (प्राणतः) प्राणवाले और (निमीषतः)
अप्राणिरूप (जगतः)जगत् का (महित्वा) अपने अनन्त महिमा से
(एक इत्)एक ही (राजा) विराजमान राजा (बभूव)है,(यः) जो
(अस्य)इस(द्धिपदः) मनुष्यादि और (चतुष्पदः) गौ आदि
प्राणियों कें शरीर की (ईशे)करता है, हम लोग उस(कस्मै)सुखस्व
रूप (देवाय) सकलैश्वर्य के देहv66रे परमात्मा के (हविशा) अपनी
सकल उत्तम से (विधेम) विशेष भकि्त करें ॥४)
5. येन॒ ध्यौरूग्रा पृ॑थि॒वी च॑ ढृढा येन॒ स्वॆ॒ सतभितं येन॒
नाकः॑।
योऽअन्तरि॑क्षे कज॑सो वि॒मानः कस्मै॑ देवाय॑
हविषा॑ विधेम ॥५॥ – यजु० ३२।६
(अर्थ – (येन)जिस परमात्मा ने (उग्र) तीक्ष्ण स्वभाववाले
(ध्यौः) सूर्य आदी (च)और (पृथिवी) भूमि को (दढा) धारण,
(येन)जिस जगदीश्वर (स्वः) सुख को (स्तभितम्) धारण, और
(येन)जिस (नाकः) दुःखरहित मोक्ष को धारण किया है। (यः)
जो (अन्तरिक्षे) आकाश में (रजसः) सब लोक- लोकान्तरों को
(विमानः) विशेषमानुक्त अर्थात जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हैं,
वैसे सब
लोकों का निर्माण करता और भ्रमण कराता है,
हम लोग उस(कस्मै)सुखदायक (देवाय) कामना करने के योग्य
परब्रहा की प्राप्-ति के
लिए (हविषा) सब सामथ्-र्य से (विधेम) विशेष भकि्त करें॥५॥)
6. प्रजा॑पते॒ न त्वढेतान्य॒न्यो विश्वा॑
जा॒तानि परि॒ ता व॑भूव।
यत्का॑मास्ते जुहुमस्तन्नो॑ऽअस्तु व॒यं स्या॑म॒
पत॑यो रयीणाम् ॥६॥ ऋग्वेद १०|१२|१
(अर्थ – हे(प्रजापते) सब प्रजा के स्वामी परमात्मन्! (त्वत्) आपसे
(अन्यः) भीन्न दुसरा कोई (ता) उन(एतानी) एन(विश्वा) सब
(जातानि) उत्पन्न हुए जड़-चेतनादिकों को (न) नहीं (परि, बभूव)
तिरस्कार करता है अर्थात् आप सर्वोपरि है। (यत्कामाः)
जिस-जिस पदार्थ की कामनावाले हम लोग (ते)आपका (जुहुमः)
आश्रय लेवें और वाञ्छा करें, (तत)उस-उसकी कामना (नः) हमारी
सिद्ध (अस्सु) होवे, जिससे(वयम्)हम लोग (रयीणाम्) धनैश्वर्य के
(पतयः) स्वामी (स्याम) होवें ॥६॥)
7. सनो॒ बन्धरजनिता स विधा॒ता धामा॑नि वे॒द
भुव॑नानि॒ विश्वा॑।
यत्र॑ देवा अ॒मृत॑मानशा॒नास्तृतीये॒ धाम॑न्न॒ध्यैर॑यन्त
॥७॥ यजुर्वेद० ३२|१०
(अर्थ – हे(प्रजापते) सब प्रजा के स्वामि परमात्मन! (त्वत) आपसे
(अन्यः) भिन्न दूसरा कोई (ता) उन(एतानि) इन(वश्वा) सब
(जातानि) उत्पन्न हए जड़-चेतनादिकों को (न) नही (परि, बभूव)
तिरस्कार करता है अर्थात आप सर्वोपरि हैं (यत्कामाः) जिस-
जिस पदार्थ की कामनावाले हम लोग (से)आपका (जुहुमः)
आश्रय लेवें और वाञ्छा करें, (तत्)उस-उसकी कामरा (नः) हमारी
सिद्ध (अस्तु)होवे, जिससे(वयम्)हम लोग (रयीणाम) धनैश्वर्यो के
(पतयः) स्वामी (स्याम) होवें ॥८॥)
8. अग्ने॒ नय सु॒पथा॑ रायेऽअस्मान् विश्वा॑नि देव
व॒युना॑नि वि॒द्वान् ।
युयो॒ध्य स्मज्जु॒हुरा॒णमेनो॒ भूयि॑ष्ठान्ते॒
नम॑ऽउक्तिंविधेम ॥८॥ यजुर्वेद ४०|१६
(अर्थ-(हे अग्ने)स्वप्रकाशक ज्ञानस्वरूप सब जगत् के प्रकाश करने-
हारे (देव)सकल सुखदाता परमेश्वर! आप दिससे (विव्दान) सम्पुर्ण
विध्य-युवत हैं, कृपा करके(अस्मान्) हम लोगों को (राये)
विज्ञान वा राज्यादि ऐश्वर्य कि प्राप्-ति के
लिए (सुपथा) अच्छे, धर्मयुक्त, अप्त लोगों के मार्ग से
(विश्वानिं) सम्पुर्ण (वयुनानि) प्रज्ञान और उत्तम कर्म
(नय)प्राप्- त कराइए, और(अस्मत्)हमसे(जुहुराणम्) कुटिलतायुक्त
(एनः) पापरूप कर्म को (युयोधि) दुर कीजिए। इस कारण हम लोग
(ते)आपकी (भूयिष्ठाम्) बहुत प्रका की स्तुतिरूप (नमउकि्तम्)
नम्रतापुर्वक प्रशंसा (विधेम) सदा रिया कें और सर्वदा आनन्द में
रहें। ॥८॥)
-इतीश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासनाप्रकरणम्
आर्य समाज भौंरी भारापुर
रूडकी हरिद्वार
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