आध्यात्म आत्ममंथन है और स्वयं को जैसा है उसी रूप में स्वीकारने की शक्ति देता है । आध्यत्म आडम्बरों, दिखावों, चढ़ावों से मुक्त होता है । आध्यत्मिक व्यक्ति आपको किसी धार्मिक व्यक्ति की तरह मंदिरों मस्जिदों में नहीं भी मिल सकता है क्योंकि उसके आराध्य का कोई ऑफिस नहीं होता कि वह वहीँ मिलेगा । आध्यत्मिक व्यक्ति का आराध्य किसी दफ्तर के बाबू की तरह चाय-पानी और चढावो के लिए किसी सहायता को नहीं रोकता । जबकि धार्मिकों के आराध्यों का दफ्तर होता है और वहीँ वे सुनवाई भी करते हैं ।
धार्मिकों को यह विशेष छूट होती है कि उनके ईश्वर सदैव उनपर नजर नहीं रख सकते इसलिए वे अधार्मिक कर्म भी कर सकते हैं । जबकि आध्यत्मिक व्यक्ति के ईश्वर तो सदैव उनके साथ ही होते हैं । धार्मिक व्यक्तियों को ईश्वर तक अपनी बात पहुचाने के लिए एजेंट्स की सहायता लेनी पड़ती है, चढ़ावा चढ़ाना पड़ता है, घंटों लाइन पर खड़े रहना पड़ता है…. जबकि आध्यात्मिक व्यक्ति को केवल ध्यान करना पड़ता है एकांत में ।
धार्मिक व्यक्ति दूसरो पर अपनी मान्यताये थोपता है, अपनी बात मनवाने के लिए छल-बल, कपट का प्रयोग करता है । जबकि आध्यात्मिक व्यक्ति जानता है जो योग्य होगा वह आध्यात्म को स्वयं ही समझ जाएगा । धार्मिक दूसरों की भूमि का अधिग्रहण करते हैं, भूमि पाने के लिए तरह तरह के अत्याचार करते हैं लेकिन आध्यात्मिक व्यक्ति जानता है कि ऐसा करके वह ईश्वर का अपमान ही करेगा ।
लेकिन धार्मिक होना सुखकर है क्योंकि हर साल गंगा में डुबकी लगाकर या तीर्थ आदि जाकर अपने सारे पापों से मुक्त हो सकते हैं और नए पाप करने के लिए स्वतंत्र हो सकते हैं । जबकि आध्यात्मिक व्यक्ति को यह सुख नहीं मिलता जीवन भर । -
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