Wednesday, March 18, 2015

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Satyarth Prakash

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भूमिका


ओ3म्

अथ सत्यार्थप्रकाशः

श्रीयुत् दयानन्दसरस्वतीस्वामिविरचितः


दयाया आनन्दो विलसति परस्स्वात्मविदितः सरस्वत्यस्यान्ते निवसति मुदा सत्यशरणा।

तदा ख्यातिर्यस्य प्रकटितगुणा राष्ट्रिपरमा स को दान्तः शान्तो विदितविदितो वेद्यविदितः।। 1।।


सत्यार्थ प्रकाशाय ग्रन्थस्तेनैव निर्मितः।

वेदादिसत्यशास्त्राणां प्रमाणैर्गुणसंयुतः।। 2।।


विशेषभागीह वृणोति यो हितं प्रियोऽत्र विद्यां सुकरोति तात्त्विकीम्।

अशेषदुःखात्तु विमुच्य विद्यया स मोक्षमाप्नोति कामकामुकः।। 3।।


न ततः फलमस्ति हितं विदुषो ह्यदिकं परमं सुलभन्नु पदम्।

लभते सुयतो भवतीह सुखी कपटि सुसुखी भविता न सदा।। 4।।


धर्मात्मा विजयी स शास्त्रशरणो विज्ञानविद्यावरोऽधर्मेणैव हतो विकारसहितोऽधर्मस्सुदुःखप्रदः।

येनासौ विधिवाक्यमानमननात् पाखण्डखण्डः कृतस्सत्यं यो विदधाति शास्त्रविहितन्धन्योऽस्तु तादृग्घि सः।। 5।।


जिस समय मैंने यह ग्रन्थ ‘सत्यार्थप्रकाश’ बनाया था, उस समय और उस से पूर्व संस्कृतभाषण करने, पठन-पाठन में संस्कृत ही बोलने और जन्मभूमि की भाषा गुजराती होने के कारण से मुझ को इस भाषा का विशेष परिज्ञान न था, इससे भाषा अशुद्ध बन गई थी। अब भाषा बोलने और लिखने का अभ्यास हो गया है। इसलिए इस ग्रन्थ को भाषा व्याकरणानुसार शुद्ध करके दूसरी वार छपवाया है। कहीं-कहीं शब्द, वाक्य रचना का भेद हुआ है सो करना उचित था, क्योंकि इसके भेद किए विना भाषा की परिपाटी सुधरनी कठिन थी, परन्तु अर्थ का भेद नहीं किया गया है, प्रत्युत विशेष तो लिखा गया है। हाँ, जो प्रथम छपने में कहीं-कहीं भूल रही थी, वह निकाल शोधकर ठीक-ठीक कर दी गर्ह है। यह ग्रन्थ १४ चौदह समुल्लास अर्थात् चौदह विभागों में रचा गया है। इसमें १० दश समुल्लास पूर्वार्द्ध और ४ चार उत्तरार्द्ध में बने हैं, परन्तु अन्त्य के ��




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