ब्रह्मचर्य तो महान तप है , जो इसका पूर्ण पालन कर लेते है वे तो वह देव स्वरूप ही होता है ।
” न तपस्तप इत्याहुः ब्रह्मचर्य तपोत्तमम् ।
उर्ध्वरेता भवेद्यस्तु स देवौ न तु मानुषः ॥”
लेकिन यह बहुत कठिन है ।
क्योंकि पितामह ने सृष्टि के लिए प्रकृति की रचना करके सारे प्राणियों को मन व इंद्रियों से युक्त कर रखा है ।
तथा बुद्धि को त्रिगुण से युक्त कर के तब सृष्टि का रचना किया है ।
अतः हम रज तम से प्रवृत्त हो कर संकल्प से या लोभ वश काम आदि के वशिभूत हो जाते है ।
काम को वश में करने का एक ही उपाय है , संकल्प का नाश ।
तथा सभी प्रकृति के प्रतिनिधियों { स्त्री जाति } को सृष्टि के लिए सहायक समझना होगा । भोग्य दृष्टि से नहीं देखना चाहिए ॥
तथा अविवाहित पुरुषों को तो किसी को गलत दृष्टि से देखना भी नहीं चाहिए ॥
ब्रह्मचर्य में अनंत गुण है ॥
आयुस्तेजो बलं वीर्यं प्रज्ञा श्रीश्च महदयशः । पुण्यं च हरि प्रियत्वं च लभते ब्रह्मचर्यया ॥
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