स्वामी विवेकानन्द का हिन्दुत्व
(स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती की
दृष्टि में)
- नवीन मिश्र
स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती एक
वैज्ञानिक संन्यासी थे। वे एक मात्र
ऐसे स्वाधीनता सेनानी थे जो
वैज्ञानिक के रूप में जेल गए थे। वे
दार्शनिक पिता पं. गंगाप्रसाद
उपाध्याय के एक दार्शनिक पुत्र थे। आप
एक अच्छे कवि, लेखक एवं उच्चकोटि के
गवेषक थे। आपने ईशोपनिषद् एवं
श्वेताश्वतर उपनिषदों का हिन्दी में
सरल पद्यानुवाद किया तथा वेदों का
अंग्रेजी में भाष्य किया। आपकी गणना
उन उच्चकोटि के दार्शनिकों में की
जाती है जो वैदिक दर्शन एवं दयानन्द
दर्शन के अच्छे व्याख्याकार माने जाते
हैं। परोपकारी के नवम्बर (द्वितीय) एवं
दिसम्बर (प्रथम) २०१४ के सम्पादकीय
‘‘आदर्श संन्यासी- स्वामी विवेकानन्द’’
के देश में धर्मान्तरण, शुद्धि, घर वापसी
की जो चर्चा आज हो रही है साथ ही इस
सम्बन्ध में स्वामी सत्यप्रकाश जी के
३० वर्ष पूर्व के विचार आज भी
प्रासंगिक हैं। इसी क्रम में स्वामी
सत्यप्रकाश सरस्वती द्वारा लिखित
पुस्तक ‘‘अध्यात्म और आस्तिकता’’ के
पृष्ठ १३२ से उद्धृत स्वामी जी का लेख
पाठकों के विचारार्थ प्रस्तुत है-
‘‘विवेकानन्द का हिन्दुत्व ईसा और
ईसाइयत का पोषक है।’’
‘‘महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अवतारवाद और
पैगम्बरवाद दोनों का खण्डन किया।
वैदिक आस्था के अनुसार हमारे बड़े से
बड़े ऋषि भी मनुष्य हैं और मानवता के
गौरव हैं, चाहे ये ऋषि गौतम, कपिल, कणाद
हों या अग्नि, वायु, आदित्य या अंगिरा।
मनुष्य का सीधा सम्बन्ध परमात्मा से है
मनुष्य और परमात्मा के बीच कोई
बिचौलिया नहीं हो सकता- न राम, न
कृष्ण, न बुद्ध, न चैतन्य महाप्रभु, न
रामकृष्ण परमहंस, न हजरत मुहम्मद, न
महात्मा ईसा मूसा या न कोई अन्य।
पैगम्बरवाद और अवतारवाद ने मानव जाति
को विघटित करके सम्प्रदायवाद की नींव
डाली।’’
हमारे आधुनिक युग के चिन्तकों में
स्वामी विवेकानन्द का स्थान ऊँचा है।
उन्होंने अमेरिका जाकर भारत की मान
मर्यादा की रक्षा में अच्छा योग दिया।
वे रामकृष्ण परमहंस के अद्वितीय शिष्य
थे। हमें यहाँ उनकी फिलॉसफी की
आलोचना नहीं करनी है। सबकी अपनी-अपनी
विचारधारा होती है। अमेरिका और यूरोप
से लौटकर आये तो रूढ़िवादी हिन्दुओं ने
उनकी आलोचना भी की थी। इधर कुछ दिनों
से भारत में नयी लहर का जागरण हुआ-यह
लहर महाराष्ट्र के प्रतिभाशाली
व्यक्ति श्री हेडगेवार जी की कल्पना
का परिणाम था। जो मुसलमान, ईसाई, पारसी
नहीं हैं, उन भारतीयों का ‘‘हिन्दू’’ नाम
पर संगठन। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की
स्थापना हुई। राष्ट्रीय जागरण की
दृष्टि से गुरु गोलवलकर जी के समय में
संघ का रू प निखरा और संघ गौरवान्वित
हुआ, पर यह सांस्कृतिक संस्था धीरे-
धीरे रूढ़िवादियों की पोषक बन गयी और
राष्ट्रीय प्रवित्तियों की विरोधी। यह
राजनीतिक दल बन गयी, उदार सामाजिक
दलों और राष्ट्रीय प्रवित्तियों के
विरोध में। देश के विभाजन की विपदा ने
इस आन्दोलन को प्रश्रय दिया, जो
स्वाभाविक था। हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य
की पराकाष्ठा का परिचय १९४७ के आसपास
हुआ। ऐसी परिस्थिति में गाँधीवादी
काँग्रेस बदनाम हुई और साम्प्रदायिक
प्रवित्तियों को पोषण मिला। आर्य
समाज ऐसा संघटन भी संयम खो बैठा और
इसके अधिकांश सदस्य (जिसमें दिल्ली,
हरियाणा, पंजाब के विशेष रूप से थे)
स्वभावतः हिन्दूवादी आर्य समाजी बन
गए। जनसंघ की स्थापना हुई जिसकी
पृष्ठभूमि में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ
था। फिर विश्व हिन्दू परिषद् बनी।
पिछले दिनों का यह छोटा-सा इतिवृत्त
है।
हिन्दूवादियों ने विवेकानन्द का नाम
खोज निकाला और उन्हें अपनी
गतिविधियों में ऊँचा स्थान दिया।
पिछले १००० वर्ष से भारतीयों के बीच
मुसलमानों का कार्य आरम्भ हुआ। सन्
९०० से लेकर १९०० के बीच दस करोड़
भारतीय मुसलमान बन गये अर्थात्
प्रत्येक १०० वर्ष में एक करोड़ व्यक्ति
मुसलमान बनते गये अर्थात् प्रतिवर्ष १
लाख भारतीय मुसलमान बन रहे थे। इस धर्म
परिवर्तन का आभास न किसी हिन्दू राजा
को हुआ, न हिन्दू नेता को। भारतीय जनता
ने अपने समाज के संघटन की समस्या पर इस
दृष्टि से कभी सूक्ष्मता से विचार नहीं
किया था। पण्डितों, विद्वानों,
मन्दिरों के पुजारियों के सामने यह
समस्या राष्ट्रीय दृष्टि से प्रस्तुत ही
नहीं हुई।
स्मरण रखिये कि पिछले १००० वर्ष के
इतिहास में महर्षि दयानन्द अकेले ऐेसे
व्यक्ति हुए हैं, जिन्होंने इस समस्या
पर विचार किया। उन्होंने दो समाधान
बताए- भारतीय समाज सामाजिक
कुरीतियों से आक्रान्त हो गया है-
समाज का फिर से परिशोध आवश्यक है।
भारतीय सम्प्रदायों के कतिपय कलङ्क
हैं, जिन्हें दूर न किया गया तो यहाँ की
जनता मुसलमान तो बनती ही रही है, आगे
तेजी से ईसाई भी बनेगी। हमारे समाज के
कतिपय कलङ्क ये थे-
१. मूर्तिपूजा और अवतारवाद।
२. जन्मना जाति-पाँतवाद।
३. अस्पृश्यता या छूआछूतवाद।
४. परमस्वार्थी और भोगी महन्तों,
पुजारियों, शंकराचार्यों की गद्दियों
का जनता पर आतंक।
५. जन्मपत्रियों, फलित ज्योतिष,
अन्धविश्वासों, तीर्थों और पाखण्डों
का भोलीभाली ही नहीं शिक्षित जनता
पर भी कुप्रभाव। राष्ट्र से इन कलङ्कों
को दूर न किया जायेगा, तो विदशी
सम्प्रदायों का आतंक इस देश पर रहेगा
ही।
दूसरा समाधान महर्षि दयानन्द ने यह
प्रस्तुत किया कि जो भारतीय जनता
मुसलमान या ईसाई हो गयी है उसे शुद्ध
करके वैदिक आर्य बनाओ। केवल इतना ही
नहीं बल्कि मानवता की दृष्टि से अन्य
देशों के ईसाई, मुसलमान, बौद्ध, जैनी
सबसे कहो कि असत्य और अज्ञान का
परित्याग करके विद्या और सत्य को
अपनाओ और विश्व बन्धुत्व की
संस्थापना करो।
विवेकानन्द के अनेक विचार उदात्त और
प्रशस्त थे, पर वे अवतारवाद से अपने
आपको मुक्त न कर पाये और न भारतीयों
को मुसलमान, ईसाई बनने से रोक पाये। यह
स्मरण रखिये कि यदि महर्षि दयानन्द और
आर्य समाज न होता तो विषुवत रेखा के
दक्षिण भाग के द्वीप समूह में कोई भी
भारतीय ईसाई होने से बचा न रहता।
विवेकानन्द के सामने भारतीयों का
ईसाई हो जाना कोई समस्या न थी।
आज देश के अनेक अंचलों में विवेकानन्द
के प्रिय देश अमेरिका के षड़यन्त्र से
भारतीयों को तेजी से ईसाई बनाया जा
रहा है। स्मरण रखिये कि विवेकानन्द के
विचार भारतीयों को ईसाई होने से रोक
नहीं सकते, प्रत्युत मैं तो यही कहूँगा
कि यदि विवेकानन्द की विचारधारा रही
तो भारतीयों का ईसाई हो जाना बुरा
नहीं माना जायेगा, श्रेयस्कर ही होगा।
विवेकानन्द के निम्न श दों पर विचार
करें- (दशम् खण्ड, पृ. ४०-४१)
मनुष्य और ईसा में अन्तरः- अभिव्यक्त
प्राणियों में बहुत अन्तर होता है।
अभिव्यक्त प्राणि के रूप में तुम ईसा
कभी नहीं हो सकते। ब्रह्म, ईश्वर और
मनुष्य दोनों का उपादान है। …… ईश्वर
अनन्त स्वामी है और हम शाश्वत सेवक हैं,
स्वामी विवेकानन्द के विचार से ईसा
ईश्वर है और हम और आप साधारण व्यक्ति
हैं। हम सेवक और वह स्वामी है।
इसके आगे स्वामी विवेकानन्द इस विषय
को और स्पष्ट करते हैं, ‘‘यह मेरी अपनी
कल्पना है कि वही बुद्ध ईसा हुए। बुद्ध
ने भविष्यवाणी की थी, मैं पाँच सौ
वर्षों में पुनः आऊँगा और पाँच सौ वर्ष
बाद ईसा आये। समस्त मानव प्रकृति की यह
दो ज्योतियाँ हैं। दो मनुष्य हुए हैं
बुद्ध और ईसा। यह दो विराट थे। महान्
दिग्गज व्यक्ति व दो ईश्वर समस्त
संसार को आपस में बाँटे हुए हैं। संसार
में जहाँ कही भी किञ्चित ज्ञान है,
लोग या तो बुद्ध अथवा ईसा के सामने
सिर झुकाते हैं। उनके सदृश और अधिक
व्यक्तियों का उत्पन्न होना कठिन है,
पर मुझे आशा है कि वे आयेंगे। पाँच सौ
वर्ष बाद मुहम्मद आये, पाँच सौ वर्ष बाद
प्रोटेस्टेण्ट लहर लेकर लूथर आये और अब
पाँच सौ वर्ष फिर हो गए हैं। कुछ हजार
वर्षों में ईसा और बुद्ध जैसे
व्यक्तियों का जन्म लेना एक बड़ी बात
है। क्या ऐसे दो पर्याप्त नहीं हैं? ईसा
और बुद्ध ईश्वर थे, दूसरे सब पैगम्बर थे।’’
कहा जाता है कि शंकराचार्य ने बौद्ध
धर्म को भारत से बाहर निकाल दिया और
आस्तिक धर्म की पुनः स्थापना की।
महात्मा बुद्ध (अर्थात् वह बुद्ध जो
ईश्वर था) को भी मानिये और उनके धर्म
को देश से बाहर निकाल देने वाले
शंकराचार्य को भी मानिये, यह कैसे हो
सकता है? विश्व हिन्दू परिषद् वाले
स्वामी शंकराचार्य का भारत में गुणगान
इसलिए करते हैं कि उन्होंने भारत को
बुद्ध के प्रभाव से बचाया, वरना ये ही
विश्व हिन्दू परिषद् वाले सनातन धर्म
स्वयं सेवक संघ की स्थापना करके बुद्ध
की मूर्तियों के सामने नत मस्तक होते।
यह हिन्दुत्व की विडम्बना है। यदि
स्वामी विवेकानन्द की दृष्टि में बुद्ध
और ईसा दोनों ईश्वर हैं तो भारत में
ईसाई धर्म के प्रवेश में आप क्यों
आपत्ति करते हैं। पूर्वोत्तर भारत में
ईसाइयों का जो प्रवेश हो रहा है, उसका
आप स्वागत कीजिये। यदि विवेकानन्द को
तुमने ‘‘हिन्दुत्व’’ का प्रचारक माना है
तो तुम्हें धर्म परिवर्तन करके किसी का
ईसाई बनना किसी को ईसाई बनाना क्यों
बुरा लगता है?
मैं स्पष्ट कहना चाहता हूँ कि
विवेकानन्दी हिन्दू (जिन्हें बुद्ध और
ईसा दोनों को ईश्वर मानना चाहिए) देश
को ईसाई होने से नहीं बचा सकते।
भारतवासी ईसाई हो जाएँ, बौद्ध हो
जायें या मुसलमान हो जाएँ तो उन्हें
आपत्ति क्यों? ईसा और बुद्ध साक्षात्
ईश्वर और हजरत मुहम्मद भी पैगम्बर!
महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज की
स्थिति स्पष्ट है। हजरत मुहम्मद भी
मनुष्य थे, ईसा भी मनुष्य थे, राम और
कृष्ण भी मनुष्य थे। परमात्मा न अवतार
लेता है न वह ऐसा पैगम्बर भेजता है,
जिसका नाम ईश्वर के साथ जोड़ा जाए
और जिस पर ईमान लाये बिना स्वर्ग
प्राप्त न हो।
भारत को ईसाइयों से भी बचाइये और
मुसलमानों से भी बचाइये जब तक कि यह
ईसा को मसीहा और मुहम्मद साहब को
चमत्कार दिखाने वाला पैगम्बर मानते
हैं।
- आर्यसमाज, अजमेर ॐ
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