अन्ति सन्तं न जहाति, अन्ति सन्तं न पश्यति ….(अथर्व. १०/८/३२)
मनुष्य अत्यन्त निकट वर्त्तमान रहनेवाले परब्रह्म परमेश्वर को न तो छोड पाता हैं, न अत्यन्त निकट उपस्थित रहनेवाले परमात्मा को देख पाता है ।
सामान्यतः ईन्द्रियो के मुख बाहर की ओर होने से मनुष्य की चेष्टा संसार की ओर होती है । संसार की ओर दौड़ होनेसे मनुष्य हमेशा बैचेन, अतृप्त, असंतुष्ट ओर दुखी होता हैं,यह सहज है । संसार कभी मनुष्य को स्थिरता नहीं दे सकता, क्योकि संसार के सभी पदार्थ खुद ही अस्थिर हैं । स्थिरता, निश्चलता, संतृप्ति हेतु आंतर जगत की यात्रा करनी आवश्यक है । अन्दर प्रवेश करते ही ईन्द्रिया, प्राण, मन आदि शनै: शनै: शांत, गंभीर होते जाते हैं और सुख-शान्ति का बोध प्रदान करते हैं ।
आज धन, संपत्ति, ऐश्वर्य, पद, प्रतिष्ठा सबकुछ होते हुए मनुष्य अशांत, बैचेन और दुखी हैं । कारण यही कि वह अपनेआपसे ठीक तरह जुडा ही नहीं । सारे व्यवहारों की सफलता का आधार अंदरसे जुड़ना ही है । कुशल व्यक्ति वही है जो खुद अपनेआप से ईमानदारी पूर्वक जुड़ता हैं । ईमानदारी पूर्वक किया हुआ योगानुष्ठान ही मन और आत्मा को शांत - सत्त्वशील बना देता हैं ।
बाहर सबकुछ अच्छा सुखमय हो, परन्तु अन्दर से मन विचलित और व्यथित हो तो सारा संसार दुखमय नर्क लगता है । संसार के सारे बाह्य व्यवहार आंतरजगत पर आश्रित हैं । अन्दर से शांत, तो सबकुछ शांत-अच्छा लगता है ।
संसार हमसे दूर है, धन- सम्पति - भवन हमसे दूर हैं । मन -ईन्द्रिय -प्राण और हमारा शरीर भी हमसे दूर हैं । दूरवाले हमेशा साथ नहीं रहते । आना-जाना बना ही रहता ही है । बाहर वाले कभी अपने होते नहीं । जो अपना है उसीको संभालो । अपना निकटतम केवल परमात्मा ही है । परमात्मा कभी पराया होगा ही नहीं । कभी छल कपट धोखा अपने परमात्मा से प्राप्त होगा नहीं । अपने साथ सदा विद्यमान परमात्मा को ही अपना लो, उसीसे अनुसंधान करो । वही निश्चित रूपसे हमारी नाँव पार उतारेगा। उसी की आव़ाज सुनो । उसी नित्य तत्व से सम्बन्ध स्थापित करो ।
जड़ चेतन सबका मूल आश्रय स्थान परमात्मा ही है । परमात्मा हमारा परमहितकारी है। सदा हमारे पर कृपावृष्टि बरसाता रहता है । हम कितना ही उलटा पुलटा कार्य क्यों न कर ले, वह हमें कभी भी अपने राज्यसे बाहर निकालता नही, और हम भी कभी भी परमात्मा का पूर्णतः परित्याग कर सकते नहीं । एसी महानतम विभूति सदाय हमारे साथ साथ है । उसीका योगाभ्यास पूर्वक केवल अभिनंदन-नमस्कार प्रस्तुत करना है ।
सबकुछ परमात्मा में गतिमान है । सभी परमात्मा में उत्पन्न होते है, परमात्मा में विकसित होते है, परमात्मा में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते है । परमात्मा के बाहर कुछ भी नहीं । सर्व जगत उसीसे आच्छादित है । अपनेआपमे अर्थात् अपने अंदर अनंतकाल से उपस्थित परमात्मा में समर्पित हो जाओ । उसीमें तल्लीन होनेसे परमात्मा खुद अपना परिचय देता है । परमात्मा खुद ही हमारा मार्गदर्शक बन जाता हैं । आवो, उसीकी शरण में जाए । उसीके साथ जुडनेसे हमारा नितान्त कल्याण अवश्य होगा ।
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