Friday, March 13, 2015

मैं आस्तिक क्यों हूँ? एक नया नया फैशन चला हैं अपने आपको नास्तिक यानि की atheist कहलाने का जिसका अर्थ...

मैं आस्तिक क्यों हूँ?

एक नया नया फैशन चला हैं अपने

आपको नास्तिक यानि की atheist कहलाने

का जिसका अर्थ हैं की मैं ईश्वर की सत्ता,

ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखता।

अलग अलग तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं जैसे अगर

ईश्वर हैं तो दिखाई क्यों नहीं देते? अगर ईश्वर

हैं तो किसी भी वैज्ञानिक प्रयोग के

द्वारा सिद्ध क्यों नहीं होते? अगर ईश्वर हैं

तो संसार में भूकम्प, बाढ़ जैसी प्राकृतिक

आपदाएँ क्यों आती हैं और ईश्वर उन्हें रोक

क्यों नहीं लेते हैं? अगर ईश्वर हैं तो संसार में

गरीबी, अत्याचार,

बीमारी आदि क्यों हैं? किसी ने ईश्वर

को संसार में लड़ाई, झगड़े, युद्ध

आदि का कारण बताया, किसी ने ईश्वर के

बताये मार्ग पर चलना अर्थात धर्म के पालन

करने को अफीम बता दिया, किसी ने

आस्तिकता को धर्म के नाम पर होने वाले

अन्धविश्वास की उत्पत्ति का कारण

बताया । परन्तु सत्य क्या हैं? क्या वाकई में

ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं हैं और

क्या नास्तिक लोगों की धारणा सत्य हैं।

हम प्रश्न उत्तर शैली में इस विषय पर विचार

रखेंगे।

1. आस्तिकता की परिभाषा क्या हैं?

समाधान- सामान्य रूप से हम

आस्तिकता की यह परिभाषा समझते हैं

की मनुष्य का अपने से किसी उच्च अदृष्ट

शक्ति पर विश्वास

रखना आस्तिकता कहलाता हैं अर्थात एक

ऐसी शक्ति जो मनुष्य से अधिक

शक्तिशाली हैं, समर्थ हैं उसमें विश्वास

रखना आस्तिकता कहलाता हैं। परन्तु यह

परिभाषा अपूर्ण हैं और इसे पढ़कर हमारे मन में

अनेक शंकाएं आती हैं। एक

आतंकवादी व्यक्ति अल्लाह या ईश्वर के

नाम पर हिंसा करता हैं, निर्दोष लोगों के

प्राणों का हरण करता हैं क्या इसे आप

आस्तिकता कहेंगे? हमारे देश के इतिहास

को उठाकर देखिये की हमारे देश में अनेक

हिन्दू-मुस्लिम दंगे धर्म के नाम पर हुए हैं।

यहाँ तक की देश का १९४७ में विभाजन

भी धर्म के नाम पर हुआ था। क्या इससे हम यह

निष्कर्ष निकाले

की आस्तिकता दंगों,उपद्रवों आदि को जन्म

देती हैं। इसी प्रकार से यूरोप के इतिहास में

क्रूसेड युद्धों का कारण ईसाई और मुस्लिम

समाज का संघर्ष था, वह भी धर्म के नाम पर

हुआ। हमारे चारों ओर हम देखे

की आस्तिकता के नाम पर अनेक

अंधविश्वासों को बढ़ावा दिया जा रहा हैं।

इससे हम क्या यह निष्कर्ष निकाले

की आस्तिकता समाज में

अराजकता को जन्म देती हैं?

क्या आस्तिकता के नाम पर हज़ारों निरीह

प्राणियों की गर्दनों पर ईद के दिन

छुरियाँ नहीं चलती हैं? इसे हम यह निष्कर्ष

क्यों न निकाले की आस्तिकता के कारण,

ईश्वर के कारण संसार में

प्राणियों को बिना कारण असमय मृत्यु

को भोगना पड़ता हैं और इसका दोष ईश्वर

को देना चाहिए।

यह शंका इसलिए उत्पन्न हुई क्यूंकि हम

आस्तिकता की परिभाषा को ठीक से

नहीं समझ पाये।

आस्तिकता की परिभाषा में

धार्मिकता का समावेश नहीं हैं । आस्तिक

विश्वास से प्रभावित होकर उत्तम कर्म

करना धर्म कहलाता हैं अर्थात

आस्तिकता के प्रभाव से मनुष्य उत्तम कर्म करे

तभी वह आस्तिक हैं अन्यथा वह

अंधविश्वासी हैं। अन्धविश्वास का मूल

कारण अज्ञानता हैं एवं हिंसा, दंगे,उपद्रव

आदि का मूल कारण स्वार्थ हैं।

2. क्या धर्म के कारण संसार में युद्ध,दंगे

आदि नहीं हुए हैं?

क्या धर्म अथवा आस्तिकता के कारण

अन्धविश्वास को बढ़ावा नहीं मिलता?

क्या धर्म अथवा आस्तिकता के कारण

निरीह

प्राणियों की बलि नहीं दी जाती?

समाधान- संसार में जितनी भी हिंसा,

युद्ध, दंगे आदि हुए हैं इनका कारण धर्म

नहीं अपितु मत अथवा मज़हब की संकीर्ण हैं।

हम जब धर्म के स्थान पर मत की मान्यताओं

को अपना ध्येय समझ लेते हैं तब शांति के

स्थान पर अशांति होती हैं , भ्रातृत्व के

स्थान पर वैमनस्य को बढ़ावा मिलता हैं।

पहले हमें धर्म

की परिभाषा को समझना चाहिए।धर्म

की परिभाषा क्या हैं?

१. धर्म संस्कृत भाषा का शब्द हैं

जोकि धारण करने वाली धृ धातु से बना हैं।

“धार्यते इति धर्म:” अर्थात जो धारण

किया जाये वह धर्म हैं। अथवा लोक परलोक

के सुखों की सिद्धि के हेतु सार्वजानिक

पवित्र गुणों और कर्मों का धारण व सेवन

करना धर्म हैं। दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं

की मनुष्य जीवन को उच्च व पवित्र बनाने

वाली ज्ञानानुकुल जो शुद्ध सार्वजानिक

मर्यादा पद्यति हैं वह धर्म हैं।

२. जैमिनी मुनि के मीमांसा दर्शन के दूसरे

सूत्र में धर्म का लक्षण हैं लोक परलोक के

सुखों की सिद्धि के हेतु गुणों और कर्मों में

प्रवृति की प्रेरणा धर्म का लक्षण

कहलाता हैं।

३. वैदिक साहित्य में धर्म वस्तु के

स्वाभाविक गुण तथा कर्तव्यों के अर्थों में

भी आया हैं। जैसे जलाना और प्रकाश

करना अग्नि का धर्म हैं और प्रजा का पालन

और रक्षण राजा का धर्म हैं।

४. मनु स्मृति में धर्म की परिभाषा

धृति: क्षमा दमोअस्तेयं शोचं इन्द्रिय

निग्रह:

धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणं

६/९

अर्थात धैर्य,क्षमा, मन को प्राकृतिक

प्रलोभनों में फँसने से रोकना,

चोरी का त्याग, शौच अर्थात पवित्रता ,

इन्द्रियों का निग्रह अर्थात उन्हें वश में

करना , बुद्धि अथवा ज्ञान, विद्या, सत्य

और अक्रोध ये धर्म के दस लक्षण हैं।

दूसरे स्थान पर कहा हैं आचार:परमो धर्म

१/१०८

अर्थात सदाचार परम धर्म हैं

५. महाभारत में भी लिखा हैं

धारणाद धर्ममित्याहु:,धर्मो धार्यते

प्रजा:

अर्थात जो धारण किया जाये और जिससे

प्रजाएँ धारण की हुई हैं वह धर्म हैं।

६. वैशेषिक दर्शन के कर्ता महा मुनि कणाद ने

धर्म का लक्षण यह किया हैं

यतोअभयुद्य निश्रेयस सिद्धि: स धर्म:

अर्थात जिससे अभ्युदय(लोकोन्नति) और

निश्रेयस (मोक्ष) की सिद्धि होती हैं, वह

धर्म हैं।

७. स्वामी दयानंद के अनुसार धर्म

की परिभाषा

जो पक्षपात रहित न्याय सत्य का ग्रहण,

असत्य का सर्वथा परित्याग रूप आचार हैं

उसी का नाम धर्म और उससे विपरीत

का अधर्म हैं।-सत्यार्थ प्रकाश ३ सम्मुलास

पक्षपात रहित न्याय आचरण सत्य भाषण

आदि युक्त जो ईश्वर आज्ञा वेदों से अविरुद्ध

हैं, उसको धर्म मानता हूँ - सत्यार्थ प्रकाश

मंतव्य

इस काम में चाहे कितना भी दारुण दुःख

प्राप्त हो , चाहे प्राण भी चले ही जावें,

परन्तु इस मनुष्य धर्म से पृथक कभी भी न होवें।-

सत्यार्थ प्रकाश

गंभीरता से चिंतन मनन करने पर धर्म का मूल

उद्देश्य व्यक्ति को सत्याचरण के लिए

प्रेरित करना हैं।

धर्म मनुष्य की उन्नति के लिए आवश्यक हैं

अथवा बाधक हैं इसको जानने के लिए हमें धर्म

और मजहब में अंतर को समझना पड़ेगा। यह धर्म

के जिस विकृत रूप के कारण अन्धविश्वास,

हिंसा अशांति, उपद्रव, दंगे आदि होते हैं उसे

मज़हब या मतमतांतर कहना चाहिए।

3. धर्म और मत/मजहब में अंतर क्या हैं?

यह समझने की आवश्यकता हैं। मज़हब अथवा मत-

मतान्तर के अनेक अर्थ हैं। मत का अर्थ हैं वह

रास्ता जो स्वर्ग और ईश्वर प्राप्ति का हैं

जोकि उस मत अथवा मज़हब के प्रवर्तक

अर्थात चलाने वाले ने बताया हैं। एक और

परिभाषा हैं की कुछ विशेष मान्यताओं पर

ईमान अथवा विश्वास लाना जो उस मत के

चलाने वाले ने बताई हैं।

१. धर्म आचरण प्रधान मार्ग हैं जबकि मजहब

ईमान या विश्वास का प्राय: हैं।

२. धर्म में कर्म सर्वोपरि हैं जबकी मज़हब में

विश्वास सर्वोपरि हैं।

३. धर्म मनुष्य के स्वाभाव के अनुकूल

अथवा मानवी प्रकृति का होने के कारण

स्वाभाविक गन हैं और इसका आधार

ईश्वरीय अथवा सृष्टि नियम हैं। परन्तु मज़हब

मनुष्य कृत होने से अप्राकृतिक

अथवा अस्वाभाविक हैं। इसी कारण से धर्म

एक हैं और मज़हब अनेक व भिन्न भिन्न हैं।

मनुष्यकृत होने के कारण मत-मतान्तर आपस में

विरोधी होते हैं जबकि धर्म का एक होने के

कारण कोई विरोध नहीं हैं।

४. धर्म के जो लक्षण मनु महाराज ने बतलाये हैं

वह समस्त मानव जाति के लिए मान्य हैं एवं

कोई भी सभ्य मनुष्य उसका विरोध नहीं कर

सकता। मज़हब या मत अनेक हैं और वे केवल

उसी मत या मज़हब को मानने

वालों द्वारा ही स्वीकारिय होते हैं एवं

अन्य द्वारा उनका विरोध होता हैं।

इसलिए धर्म सर्वकालिक(सभी काल में

मानने योग्य), सार्वजानिक (सभी के लिए

उपयोगी), सर्वग्राह्य (सभी को ग्रहण करने

योग्य) और सार्वभौमिक (सभी स्थानों पर

मानने योग्य) हैं जबकि मत या मजहब

किसी एक विशेष काल में, किन्हीं विशेष

लोगो के समूह द्वारा, किसी विशेष स्थान

पर मानने योग्य ही बन पाता हैं । कुछ बातें

सभी मजहबों या मतों में धर्म के अंश के रूप में हैं

इसलिए उन मजहबों का कुछ मान बना हुआ हैं।

५. धर्म सदाचार रूप हैं अत: धर्मात्मा होने के

लिये सदाचारी होना अनिवार्य हैं। परन्तु

मज़हबी अथवा मत का सदस्य होने के लिए

सदाचारी होना अनिवार्य नहीं हैं।

अर्थात जिस तरह तरह धर्म के साथ सदाचार

का नित्य सम्बन्ध हैं उस तरह मजहब के साथ

सदाचार का कोई सम्बन्ध नहीं हैं।

किसी भी मज़हब का अनुनायी न होने पर

भी कोई

भी व्यक्ति धर्मात्मा (सदाचारी) बन

सकता हैं

जबकि अधर्मी व्यक्ति बिना सदाचार के

भी किसी भी मत का सदस्य बन सकता हैं।

उसके लिए केवल मत के मंतव्यों पर ईमान

अथवा विश्वास लाता आवश्यक हैं । जैसे

उदहारण के लिए कोई

कितना ही सच्चा ईश्वर उपासक और उच्च

कोटि का सदाचारी ही क्यूँ न हो वह जब

तक हज़रात ईसा और बाइबिल अथवा हजरत

मोहम्मद और कुरान शरीफ पर ईमान

नहीं लायेगा वह तब तक ईसाई

अथवा मुस्लमान नहीं बन सकता जबकि कोई

व्यक्ति केवल सदाचार से धार्मिक बन

सकता हैं।

६. धर्म ही मनुष्य को मनुष्य बनाता हैं

अथवा धर्म अर्थात धार्मिक गुणों और

कर्मों के धारण करने से ही मनुष्य मनुष्यत्व

को प्राप्त करके मनुष्य कहलाने

का अधिकारी बनता हैं। दूसरे शब्दों में धर्म

और मनुष्यत्व पर्याय हैं। क्यूंकि धर्म

को धारण करना ही मनुष्यत्व हैं।

कहा भी गया हैं-खाना,पीना,सोना,संतान

उत्पन्न करना जैसे कर्म मनुष्यों और पशुयों के

एक समान हैं। केवल धर्म ही मनुष्यों में विशेष हैं

जोकि मनुष्य को मनुष्य बनाता हैं। धर्म से

हीन मनुष्य पशु के समान हैं। परन्तु मज़हब मनुष्य

को केवल पन्थाई या मज़हबी और

अन्धविश्वासी बनाता हैं। दूसरे शब्दों में

मज़हब अथवा मत पर ईमान लाने से मनुष्य उस

मज़हब का अनुनाई अथवा ईसाई

अथवा मुस्लमान बनता हैं

नाकि सदाचारी या धर्मात्मा बनता हैं।

७. धर्म मनुष्य को ईश्वर से सीधा सम्बन्ध

जोड़ता हैं और मोक्ष प्राप्ति निमित

धर्मात्मा अथवा सदाचारी बनना अनिवार्य

बतलाता हैं परन्तु मज़हब मुक्ति के लिए

व्यक्ति को सर्वप्रथम तो उसके प्रवर्तक से

जोड़ता हैं अथवा उस मत की मान्यताओं से

जोड़ना अनिवार्य बतलाता हैं। मुक्ति के

लिए सदाचार से अधिक आवश्यक उस मज़हब

की मान्यताओं का पालन बतलाता हैं।

उदहारण के लिए अल्लाह और मुहम्मद साहिब

को उनके अंतिम पैगम्बर मानने वाले जन्नत

जायेगे चाहे वे कितने

भी व्यभिचारी अथवा पापी हो जबकि गैर

मुसलमान चाहे

कितना भी धर्मात्मा अथवा सदाचारी क्यूँ

न हो वह दोज़ख अर्थात नर्क की आग में अवश्य

जलेगा क्यूंकि वह कुरान के ईश्वर अल्लाह और

रसूल पर अपना विश्वास नहीं लाया हैं।

८. धर्म में वाह्य (बाहर) के चिन्हों का कोई

स्थान नहीं हैं क्यूंकि धर्म लिंगात्मक नहीं हैं

-न लिंगम धर्मं कारणं अर्थात लिंग

(बाहरी चिन्ह) धर्म का कारण नहीं हैं परन्तु

मज़हब के लिए

बाहरी चिन्हों का रखना अनिवार्य हैं जैसे

एक मुस्लमान के लिए जालीदार टोपी और

दाढ़ी रखना अनिवार्य हैं।

९. धर्म मनुष्य को पुरुषार्थी बनाता हैं

क्यूंकि वह ज्ञानपूर्वक सत्य आचरण से

ही अभ्युदय और मोक्ष

प्राप्ति की शिक्षा देता हैं परन्तु मज़हब

मनुष्य को आलस्य का पाठ सिखाता हैं

क्यूंकि मज़हब के मंतव्यों मात्र को मानने भर

से ही मुक्ति का होना उसमें

सिखाया जाता हैं। धार्मिक

व्यक्ति को अपने आचरण में अपने व्यवहार में

सात्विकता का पालन करना पड़ता हैं

जबकि मज़हबी व्यक्ति को यह

सिखाया जाता हैं की मत की मान्यताओं

को मानने से तुम्हारी मुक्ति हो जाएगी।

धर्म व्यक्ति को कर्मशील बनाता हैं

जबकि मत उसे आलसी एवं

अंधविश्वासी बनाता हैं। १०. धर्म मनुष्य

को ईश्वर से सीधा सम्बन्ध जोड़कर मनुष्य

को स्वतंत्र और आत्म स्वालंबी बनाता हैं

क्यूंकि वह ईश्वर और मनुष्य के बीच में

किसी भी मध्यस्थ या एजेंट

की आवश्यकता को नहीं बताता हैं । परन्तु

मत या मज़हब मनुष्य को परतंत्र और दूसरों पर

आश्रित बनाता हैं क्यूंकि वह मज़हब के

प्रवर्तक की सिफारिश के

बिना मुक्ति का मिलना नहीं मानता हैं।

मत व्यक्ति को एक प्रकार से मानसिक

गुलाम बनाता हैं जबकि धर्म उसे मानसिक

गुलामी से स्वतंत्र करता हैं।

११. धर्म दूसरों के हितों की रक्षा के लिए

अपने प्राणों की आहुति तक

देना सिखाता हैं जबकि मज़हब अपने हित के

लिए अन्य मनुष्यों और पशु आदि के प्राण हरने

के लिए हिंसा रुपी क़ुरबानी का आदेश

देता हैं। विश्व में चारों और फैला आतंकवाद

एवं ईद के दिन निरीह पशुओं

की क़ुरबानी अथवा कुछ हिन्दू मंदिरों में

बलि इस बात का प्रबल प्रमाण हैं।

१२. धर्म मनुष्य को सभी प्राणी मात्र से प्रेम

करना सिखाता हैं जबकि मज़हब मनुष्य

को प्राणियों का माँसाहार करने और दूसरे

मज़हब वालों से द्वेष सिखाता हैं।

१३. धर्म मनुष्य जाति को मनुष्यत्व के नाते से

एक प्रकार के सार्वजानिक आचारों और

विचारों द्वारा एक केंद्र पर केन्द्रित करके

भेदभाव और विरोध को मिटाता हैं

तथा एकता का पाठ पढ़ाता हैं। परन्तु मज़हब

अपने भिन्न भिन्न मंतव्यों और कर्तव्यों के

कारण अपने पृथक पृथक जत्थे बनाकर भेदभाव

और विरोध को बढ़ाते और

एकता को मिटाते हैं।

१४. धर्म एक मात्र ईश्वर की पूजा बतलाता हैं

जबकि मज़हब ईश्वर से भिन्न मत प्रवर्तक/गुरु/

मनुष्य आदि की पूजा बतलाकर

अन्धविश्वास फैलाते हैं।

धर्म और मज़हब के अंतर को ठीक प्रकार से समझ

लेने पर मनुष्य अपने चिंतन मनन से

कल्याणकारी कार्यों को करता हैं, उनके

फल को संचित करता हैं एवं उससे अन्य

लोगों का परोपकार करता हैं इसे

ही पुरुषार्थ कहते हैं। इसलिए धर्म के पालन में

सभी का कल्याण हैं और मत अथवा मज़हब के

पालन से सभी का अहित हैं। ईश्वर में

विश्वास अर्थात आस्तिकता के कारण

व्यक्ति धार्मिक बनता हैं एवं मज़हब

अथवा मत के कारण अधार्मिक बनता हैं।

जितने भी तर्क आस्तिकता के विरुद्ध

नास्तिक लोग देते हैं वे सभी तर्क मजहब

या मत पर लागु होते हैं। धर्म

की सही परिभाषा एवं उसके अनुसार आचरण

करने पर समाज का हित होता हैं।

4. नास्तिक बनने के क्या कारण हैं?

समाधान- नास्तिक बनने के प्रमुख कारण हैं

१. ईश्वर के गुण,कर्म और स्वभाव से

अनभिज्ञता

२. धर्म के नाम पर अन्धविश्वास जिनका मूल

मत मतान्तर की संकीर्ण सोच हैं

३. विज्ञान द्वारा करी गई कुछ भौतिक

प्रगति को देखकर अभिमान का होना

४. धर्म के नाम पर दंगे,युद्ध, उपद्रव आदि

ईश्वर के नाम पर अत्याचार,

अज्ञानता को बढ़ावा देना, चमत्कार

आदि में विश्वास दिलाना, ईश्वर

को एकदेशीय अर्थात एक स्थान जैसे मंदिर,

मस्जिद आदि अथवा चौथे अथवा सातवें

आसमान तक सिमित करना, ईश्वर

द्वारा अवतार लेकर विभिन्न

लीला करना, एक के स्थान पर अनेक ईश्वर

होना, निराकार के स्थान पर साकार

ईश्वर होना, ईश्वर

द्वारा अज्ञानता का प्रदर्शन

करना आदि कुछ कारण हैं जो एक निष्पक्ष

व्यक्ति को भी यह सोचने पर मजबूर कर देते हैं

की क्या ईश्वर का अस्तित्व हैं

की नहीं अथवा ईश्वर मनुष्य के मस्तिष्क

की कल्पना मात्र हैं। उदहारण के तौर पर

हिन्दू समाज में शूद्रों को मंदिरों में प्रवेश

की मनाही हैं एवं अगर कोई शूद्र मंदिर में

प्रवेश कर भी जाये तो उसे दंड

दिया जाता हैं और मंदिर को पवित्र करने

का ढोंग किया जाता हैं। यह सब पाखंड

किया तो ईश्वर के नाम पर जाता हैं मगर

इसके पीछे मूल कारण मनुष्य का स्वार्थ हैं

नाकि ईश्वर का अस्तित्व हैं। ईश्वर गुण, कर्म

और स्वाभाव से दयालु एवं न्यायकारी हैं

इसलिए वह किसी भी प्राणिमात्र में कोई

भेदभाव नहीं करते। ईश्वर गुणों से सर्वव्यापक

एवं निराकार हैं अर्थात सभी स्थानों पर हैं

और आकार रहित भी हैं। जब ईश्वर

सभी स्थानों पर हैं तो फिर उन्हें केवल मंदिर

में या क्षीर सागर पर या कैलाश पर

या चौथे आसमान पर या सातवें आसमान पर

ही क्यों माने। इससे यही सिद्ध होता हैं

की मनुष्य ने अपनी कल्पना से पहले ईश्वर

को निराकार से साकार किया, उन्हें

सर्वदेशीय अर्थात सभी स्थानों पर निवास

करने वाला से एकदेशीय अर्थात एक स्थान पर

सिमित कर दिया। फिर सिमित कर कुछ

मनुष्यों ने अपने आपको ईश्वर का दूत, ईश्वर और

आपके बीच मध्यस्थ, ईश्वर तक आपकी बात

पहुँचने वाला बना डाला। यह

जितना भी प्रपंच ईश्वर के नाम पर

रचा गया यह इसीलिए हुआ क्यूंकि हम ईश्वर

के निराकार गुण से परिचित नहीं हैं।

अपनी अंतरात्मा के भीतर निराकार एवं

सर्वव्यापक ईश्वर को मानने से न मंदिर की, न

मूर्ति की, न मध्यस्थ की, न दूत की, न

अवतार की, न पैगम्बर की और न

ही किसी मसीहा की आवश्यकता हैं।

ईश्वर के नाम पर सबसे अधिक

भ्रांतियाँ मध्यस्थ बनने वाले लोगो ने

फैलाई हैं चाहे वह छुआ छूत का समर्थन करने

वाले एवं शूद्रों को मंदिरों में प्रवेश न देने

वाले हिन्दू धर्म के पुजारी हो , चाहे इस्लाम

से सम्बन्ध रखने वाले मौलवी-

मौलाना हो जिनके उकसाने के कारण

इतिहास में मुस्लिम हमलावरों ने मानव

जाति पर धर्म के नाम पर ऐसा कोई

भी अत्याचार नहीं था जो उन्होंने

नहीं किया था , चाहे ईसाई समाज से

सम्बंधित पोप आदि हो जिन्होंने चर्च के

नाम पर

हज़ारों लोगो को जिन्दा जला दिया एवं

निरीह जनता पर अनेक अत्याचार किये। न

यह मध्यस्थ होते न ईश्वर के नाम पर इतने

अत्याचार होते और न ही इस अत्याचार के

फलस्वरूप प्रतिक्रिया रूप में विश्व के एक बड़े

समूह को ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार

कर नास्तिकता का समर्थन करना पड़ता।

सत्य यह हैं यह प्रतिक्रिया इस

व्याधि का समाधान नहीं थी अपितु इसने

रोग को और अधिक बढ़ा दिया। आस्तिक

व्यक्ति यथार्थ में ईश्वर विश्वासी होने से

पापकर्म में लीन होने से बचता था। दोष

मध्यस्थों का था जो आस्तिकों का गलत

मार्गदर्शन करते थे । मगर ईश्वर को त्याग देने

से पाप-पुण्य का भेद मिट गया और पाप कर्म

अधिक बढ़ता गया, नैतिक मूल्यों को ताक

पर रख दिया गया एवं इससे विश्व

अशांति और अराजकता का घर बन गया।

ईश्वर में अविश्वास का एक बड़ा कारण

अन्धविश्वास हैं। सामान्य जन विभिन्न

प्रकार के अंधविश्वासों में लिप्त हैं और उन

अंधविश्वासों का नास्तिक लोग कारण

ईश्वर को बताते हैं. सत्य यह हैं की ईश्वर

ज्ञान के प्रदाता हैं अज्ञान को बढ़ावा देने

का मुख्य कारण मनुष्य का स्वार्थ हैं।

अपनी आजीविका, अपनी पदवी, अपने नाम

को सिद्ध करने के लिए अनेक धर्म गुरु अपने

अपने ढंग से अपनी अपनी दुकान चलाते हैं।

कोई झाड़ फूंक से ,कोई गुरुमंत्र से, कोई गुरु के

नाम स्मरण से ,कोई गुरु की आरती से, कोई गुरु

की समाधी आदि से जीवन के

सभी दुखों का दूर होना बताता हैं, कोई

गंडा तावीज़ पहनने से आवश्यकताओं

की पूर्ति बताता हैं, कुछ लोग और आगे बढ़कर

अंधे हो जाते हैं और कोई कोई निस्संतान

संतान प्राप्ति के लिए पड़ोसी के बच्चे

की नरबलि देने तक से नहीं चूकता हैं।

विडंबना यह हैं की इन मूर्खों के

क्रियाकलापों को दिखा दिखा कर अपने

आपको तर्कशील कहने वाले लोग

नास्तिकता को बढ़ावा देते हैं। कोई

भी अन्धविश्वास वैज्ञानिक प्रयोगों से

सिद्ध नहीं हो सकता इसलिए

नास्तिकता को प्रोत्साहन

वालो द्वारा विज्ञान का सहारा लेकर

नास्तिकता का प्रचार करना भी एक

प्रकार से अन्धविश्वास को मिटाने के

स्थान पर एक और अन्धविश्वास

को बढ़ावा देना ही हैं।

चमत्कार में विश्वास अन्धविश्वास

की उत्पत्ति का मूल हैं। आस्तिक समाज में

मुस्लमान पैगम्बरों की चमत्कार

की कहानियों में अधिक विश्वास रखते हैं,

ईसाई समाज में ईसा मसीह और संतों के नाम

पर चमत्कार की दुकानें चलाई जाती हैं।

हिन्दू समाज में चमत्कार पुराणों में

लिखी देवी-देवताओं की कहानियों से लेकर

गुरुडम की दुकानों तक फल फूल रहा हैं। इन

सभी का यह मानना हैं की ईश्वर सब कुछ कर

सकता हैं। स्वामी दयानंद सत्यार्थ प्रकाश

में इस दावें की परीक्षा करते हुए लिखते हैं

की अगर ईश्वर सब कुछ कर सकता हैं

तो क्या ईश्वर अपने आपको मार

भी सकता हैं? क्या ईश्वर अपने जैसा एक और

ईश्वर बना सकता हैं जिसके गुण-कर्म और

स्वाभाव उसी के समान हो। इसका उत्तर

स्पष्ट हैं नहीं। फिर ईश्वर सब कुछ कैसे कर

सकता हैं? इस शंका का समाधान यह हैं

की जो जो कार्य ईश्वर के हैं जैसे

सृष्टि की उत्पत्ति,पालन-पोषण,प्रलय, मनुष्य

आदि का जन्म-मरण, पाप-पुण्य का ;फल

देना आदि का र्य करने में ईश्वर स्वयं सक्षम हैं

उन्हें किसी की आवश्यकता नहीं हैं।

नास्तिक लोग आस्तिकों की चमत्कार के

दावों की परीक्षा लेते हुए कहते हैं

की सृष्टि को नियमित मानते

हो अथवा अनियमित। चमत्कार

नियमों का उल्लंघन हैं। अगर ईश्वर की बनाई

सृष्टि को अनियमित मानते हो तो उसे

बनाने वाले ईश्वर को भी अनियमित

मानना पड़ेगा। जोकि असंभव हैं। इसलिए

चमत्कार को मनुष्य के मन की स्वार्थवश

कल्पना मानना सत्य को मानने के समान हैं।

न इससे ईश्वर का नियमित होने का खंडन

होगा और न ही अन्धविश्वास

को बढ़ावा मिलेगा।

नास्तिकता को बढ़ावा देने में एक

बड़ा दोष अभिमान का भी हैं। भौतिक

जगत में मनुष्य ने जितनी भी वैज्ञानिक

उन्नति की हैं उस पर वह अभिमान करने

लगता हैं और इस अभिमान के कारण अपने

आपको जगत के सबसे बड़ी सत्ता समझने

लगता हैं। एक उदहारण लीजिये सभी यह

मानते हैं की न्यूटन ने Gravitation अर्थात

गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत की खोज

की थी। क्या न्यूटन से पहले गुरुत्वाकर्षण

की शक्ति नहीं थी? थी मगर मनुष्य

को उसका ज्ञान नहीं था अर्थात न्यूटन ने

केवल अपनी अल्पज्ञता को दूर

किया था और

इसी क्रिया को अविष्कार

कहा जाता हैं। सत्य यह हैं

की जितनी भी भौतिक वैज्ञानिक

उन्नति हैं वह अपनी अलपज्ञता को दूर

करना हैं। मनुष्य चाहे

कितनी भी उन्नति क्यों न कर ले वह ज्ञान

की सीमा को कभी प्राप्त नहीं कर

सकता क्यूंकि एक तो मनुष्य

की शक्तियां सिमित हैं जबकि ज्ञान

की असीमित हैं दूसरी असीमित ज्ञान

का ज्ञाता केवल एक ही हैं और वो हैं ईश्वर

जिनमें न केवल वो ज्ञान भी पूर्ण हैं जो केवल

मानव के लिए हैं अपितु वह ज्ञान भी हैं

जो मानव से परत केवल ईश्वर के लिए हैं।

स्वयं न्यूटन की इस सन्दर्भ में

धारणा कितनी प्रासंगिक हैं की

“I do not know what I may appear to the world,

but to myself I seem to have been only like a boy

playing on the sea-shore, and diverting myself in

now and then finding a smoother pebble or a

prettier shell than ordinary, whilst the great ocean

of truth lay all undiscovered before me.”

न्यूटन ने हमारी अवधारणा का समर्थन कर

अपनी निष्पक्षता का परिचय दिया हैं।

अब प्रश्न यह हैं की धर्म और विज्ञान में

क्या सम्बन्ध हैं और क्यूंकि नास्तिक

लोगो का यह मत हैं की धर्म और विज्ञान

एक दूसरे के शत्रु हैं। नास्तिक लोगो की इस

सोच का मुख्य कारण यूरोप के इतिहास में

चर्च द्वारा बाइबिल के मान्यताओं पर

वैज्ञानिकों द्वारा शंका करना और

उनकी आवाज़ को सख्ती से दबा देना था।

उदहारण के लिए गैलिलियो को इसलिए

मार डाला गया क्यूंकि उसने

कहा था की पृथ्वी सूर्य के चारों और भ्रमण

करती हैं जबकि चर्च की मान्यता इसके

विपरीत थी। चर्च ने

वैज्ञानिकों का विरोध आरम्भ कर

दिया और उन्हें सत्य को त्याग कर

जो बाइबिल में लिखा था उसे मानने

को मजबूर किया और न मानने

वालो को दण्डित किया गया। इस

विरोध का यह परिणाम

निकला की यूरोप से निकलने वाले

वैज्ञानिक चर्च को अर्थात धर्म

को विज्ञान का शत्रु मानने लग गए और

उन्होंने ईश्वर की सत्ता को नकार दिया।

दोष चर्च के अधिकारीयों का था नाम

ईश्वर का लगाया गया। यह विचार

परम्परा रूप में चलता आ रहा हैं और इस कारण

से वैज्ञानिक अपने आपको नास्तिक कहते हैं।

अब प्रश्न यह उठता हैं की धर्म और विज्ञान

में क्या सम्बन्ध हैं? इसका उत्तर हैं की “Religion

and Science are not against each other but they

are allies to each other” अर्थात धर्म और एक

दूसरे के विरोधी नहीं अपितु सहयोगी हैं।

जैसे विज्ञान यह बताता हैं की जगत कैसे

बना हैं जबकि धर्म यह बताता हैं की जगत क्यूँ

बना हैं। जैसे मनुष्य का जन्म कैसे हुआ यह

विज्ञान बताता हैं जबकि मनुष्य का जन्म

क्यूँ हुआ यह धर्म बताता हैं।

भौतिक विज्ञान के लिए आध्यात्मिक

शंकाओं का समाधान करना असंभव हैं मगर

इनका समाधान धर्म द्वारा ही संभव हैं।

धर्म और विज्ञान दोनों एक दूसरे के

सहयोगी हैं और इसी तथ्य को आइंस्टीन ने

सुन्दर शब्दों में इस प्रकार से कहा हैं – “Science

without religion is a lame and religion without

science is blind.”

विज्ञान धर्म के मार्गदर्शन के

बिना अधूरा हैं और सत्य धर्म विज्ञान के

अनुकूल हैं, अन्धविश्वास अवैज्ञानिक होने के

कारण त्याग करने योग्य हैं।

एक कुतर्क यह भी दिया जाता हैं की अगर

ईश्वर हैं तो उन्हें वैज्ञानिक प्रयोगों से

सिद्ध करके दिखाए। इसका समाधान वायु

के अतिरिक्त मन, बुद्धि, सुख, दुःख, गर्मी,

सर्दी, काल, दिशा, आकाश ये

सभी निराकार हैं।क्या ये सभी वैज्ञानिक

प्रयोगों से सिद्ध होते हैं? नही। परन्तु फिर

भी इनका अस्तित्व माना जाता हैं फिर

केवल ईश्वर को लेकर यह

शंका उठाना नास्तिकता का समर्थन करने

वाले की निष्पक्षता पर प्रश्न उठाता हैं।

सत्य यह हैं की वैज्ञानिक प्रयोगों से ईश्वर

की सत्ता को सिद्ध न कर पाना आधुनिक

विज्ञान की कमी हैं जबकि आध्यात्मिक

वैज्ञानिक जिन्हे हम ऋषि कहते हैं चिरकाल

से निराकार ईश्वर को न केवल

अपनी अंतरात्मा में अनुभव करते आ रहे हैं

अपितु जगत के कण कण में भी विद्यमान पाते

हैं।

दंगे, युद्ध, उपद्रव आदि का दोष ईश्वर

को देना एक और मूर्खता हैं। यह पहले ही स्पष्ट

किया जा चूका हैं की दंगे, उपद्रव

आदि मज़हब या मत-मतान्तर आदि को मानने

वालो के स्वार्थ के कारण होता हैं

नाकि धर्म के कारण होता हैं। एक उदहारण

लीजिये १९४७ से पहले हमारे देश में अनेक दंगे

हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच में हुए थे। इन

दंगों का मुख्य कारण यह

बताया जाता था की हिन्दुओं के

धार्मिक जुलुस के मस्जिद के सामने से

निकलने से मुसलमानों की नमाज़ में विघ्न पड़

गया जिसके कारण यह दंगे हुए। मेरा स्पष्ट

प्रश्न हैं की जो व्यक्ति ईश्वर

की उपासना या नमाज़ में लीन होगा उसके

सामने चाहे बारात भी क्यों न निकल जाये

उसे मालूम ही नहीं चलेगा परन्तु

जो व्यक्ति यह बांट जो रहा हो की कब

हिन्दुओं का जुलुस आये कब हम नमाज़ आरम्भ करे

और कब दंगा हो तो इसका दोष ईश्वर

को देना कहा तक उचित हैं।

संसार में जितनी भी हिंसा ईश्वर के नाम पर

होती हैं उसका मूल कारण स्वार्थ हैं

नाकि धर्म हैं।

5. शंका- ईश्वर में विश्वास रखने के क्या लाभ

हैं?

समाधान- ईश्वर में विश्वास रखने के

निम्नलिखित लाभ हैं

१. आदर्श शक्ति में विश्वास से जीवन में

दिशा निर्धारण होता हैं

२. सर्वव्यापक एवं निराकार ईश्वर में

विश्वास से पापों से मुक्ति मिलती हैं

३. ज्ञान के उत्पत्तिकर्ता में विश्वास से

ज्ञान प्राप्ति का संकल्प बना रहता हैं

४. सृष्टि के रचनाकर्ता में विश्वास से ईश्वर

की रचना से प्रेम बढ़ता हैं

५. अभयता, आत्मबल में वृद्धि, सत्य पथ

का अनुगामी बनना, मृत्यु के भय से मुक्ति,

परमानन्द सुख की प्राप्ति, आध्यात्मिक

उन्नति, आत्मिक शांति की प्राप्ति,

सदाचारी जीवन आदि गुण

की आस्तिकता से प्राप्ति होती हैं

६. स्वार्थ, पापकर्म, अत्याचार, दुःख, राग,

द्वेष, इर्ष्या, अहंकार आदि दुर्गुणों से

मुक्ति मिलती हैं

आस्तिकता का सबसे बड़ा लाभ एक आदर्श

शक्ति में विश्वास होता हैं। एक उदहारण

लीजिये कोई भी छात्र अपनी कक्षा के

सबसे अधिक अंक लाने वाले अथवा अन्य

गतिविधियों में बढ़चढ़कर भाग लेने वाले

छात्र का अनुसरण करने का प्रयास करता हैं

क्यूंकि उसका यह विश्वास हैं की वह आदर्श

हैं एवं हमें उन जैसा बनना चाहिए। यही नियम

समाज के मनुष्यों पर भी लागु चिरकाल

होता हैं। वे समाज के सबसे प्रबुद्ध, सबसे गुणी,

सबसे प्रभावशाली व्यक्ति का अनुसरण करते

हैं। जीव अलपज्ञ हैं, ईश्वर सर्वज्ञ हैं। जीव

कितना भी आदर्श क्यों न हो ,

कितना भी गुणी क्यों न हो परन्तु कोई न

कोई कमी उसमें रह ही जाती हैं, उससे इतने बड़े

जीवन में कोई न कोई गलती हो सकती हैं।

जबकि ईश्वर में कमी या गलती की कोई

सम्भावना नहीं हैं क्यूंकि ईश्वर पूर्ण, सर्वज्ञ

एवं त्रुटि रहित हैं। जैसा आप अनुसरण करेंगे

वैसा आपके ऊपर प्रभाव पड़ेगा। फिर एक

ऐसी सत्ता में विश्वास करने में अनेक लाभ हैं

जो सबसे आदर्शवान हैं और

उसी शक्ति को ईश्वर कहते हैं। संक्षेप में ईश्वर

में विश्वास से एक आदर्श शक्ति में विश्वास

बनता हैं और उस आदर्श शक्ति के विश्वास से

उसके समान गुणों के विकास करने का अवसर

मनुष्यों को मिलता हैं। बिना आदर्श

शक्ति में विश्वास के मनुष्य इधर उधर

भटकता रहता हैं और पाप-पुण्य में भेद

की कमी के चलते जीवन का नाश कर

लेता हैं। इसलिए आस्तिकता मनुष्य

का मार्गदर्शन करती हैं बशर्ते की मनुष्य

को ईश्वर के आदर्श गुणों से परिचय अवश्य

होना चाहिए।

सर्वव्यापक एवं निराकार ईश्वर में विश्वास

से पापों से मुक्ति मिलती हैं। एक उदहारण

लीजिये एक बार एक गुरु के तीन शिष्य थे।

गुरु ने अपने तीनों शिष्यों को एक एक कबूतर

देते हुए कहा की इन कबूतरों को वहा पर

मारना जहाँ पर आपको कोई भी न देख

रहा हो। प्रथम शिष्य ने एक कमरे में बंद करके

कबूतर को मार डाला, दूसरे ने जंगल में

झाड़ी के पीछे कबूतर को मार डाला,

तीसरा शिष्य कबूतर को बिना मारे ले

आया। गुरु ने तीसरे शिष्य से पूछा की उसने

कबूतर को क्यों नहीं मारा। उसने उत्तर

दिया की मुझे ऐसा कोई स्थान

ही नहीं मिला जहाँ पर मुझे कोई देख न

रहा हो। हर स्थान पर निराकार और

सर्वव्यापक ईश्वर विद्यमान हैं। ऐसे में मैं कबूतर

के प्राण कैसे हर सकता था। गुरु ने उसे

शाबासी दी और कहा की तुम मेरे पाठ

को भली प्रकार से समझे हो।

आज आस्तिकता के नाम पर जितने पाखंड

होते हैं वह ईश्वर को सर्वव्यापक और

निराकार मानने से नहीं होते। कोई

भी व्यक्ति मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर

जाता हैं वह यही समझता हैं की ईश्वर केवल

उसी स्थान पर हैं। वहां से बाहर निकलते

ही वह ईश्वर की सत्ता को अस्वीकार कर

पापकर्म में लिप्त हो जाता हैं।

जो व्यक्ति हर समय, हर काल में, हर स्थान पर

ईश्वर की सत्ता को समझेगा वह

कभी किसी भी पापकर्म में ल�




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