आज इशोपनिषद का यह 8 वा मंत्र पडा गया|
इस मंत्र मै ईश्वर के गुण कर्म स्वभाव के विशय मे हम मनुष्यों को बताया है|
स पर्यगाच्छुक्रमकायमवर्णमस्नाविरँ शुद्धम्|
कविर्मनीसी परिभू: स्वयंभूर्याथातथ्यतोअर्थान्व्यदधाच्छाश्वतीभ्य: समाभ्य:||
(हिंदी टाइप करने मे जब इतनी महेनत करनी पड़ती है तो संस्कृत कि क्या कहें? गलती तो हो ही जाती है)
स- वह परमात्मा
परिअगात- सब ओर गया हुआ, सब ओर व्याप्त है
शुक्रं- शुद्ध, दीप्त, संसार का उत्पन्न करने वाला है
अकायम- शरीर से रहित, निराकार है
अव्रनं- घावों से रहित
अस्नाविरं- नस नाडी के बंधन से रहित
शुद्धं- सब मलों सेरहित, शुद्ध, पवित्र है
अपापविद्धं- पापों से रहित, दोष शून्य
कवि: - वेद रूपी काव्य का निर्माता, ज्ञानी, सर्वग्य
मनिषी- मनन करने वाला, सबके मन कि बात जानने वाला
परिभू: - सब जगाह व्याप्त
स्वयम्भू: - स्वयं सत्ता वाला, अपने कार्य मे किसी और कि सहायता ना लेने वाला
और आगे जो शब्द शेश है उनके अर्थ इस प्रकार है
जो वस्तु जैसी है उसे वैसी ही बनाना और समझना, इस संसार को रचता है बनाता है,
वह निरंतर कार्य करता हुआ, व्यव्धान शून्य होकर सदैव प्रजा की शांति के लिये जगत के निर्माण आदि कार्य करता है||
अगर किसी पंडित पुजारी काजी मुल्ला फादर पादरी या मठाधीश ने ये वाक्य ईश्वर के विशय मे पड़ कर जाने होते तो आज धर्म के नाम पर इतनी मारा-मारी ना होती
वैदिक संस्थान, शिवपुरी
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