आज की विशेष जानकारी—-
आज 19 दिसमबर इन…..
मरते ‘बिस्मिल’ 'रोशन’ 'लहरी’ 'अशफाक’ अत्याचार से ।
होंगे पैदा सैंकड़ों इनके रुधिर की धार से ॥
इन महान आत्माऔ के
#बलिदान दिवस पर…
आज के समय मे हर बंदा देश, धर्म व संस्कृति के लिऐ काफी कुछ करना चाहता है….
लेकीन चाहकर भी कुछ कर नही पता है….
कारण-वह उन्ही गलतियो को दोहराता है,जो उसके पुर्वजो ने दोहराई थी….
#बिस्मिल ने अपनि फांसी से ठीक एक दिन पुर्व तक बड़ी मुश्कील से तिन टुकड़ो मे अपनी #आत्मकथा को लिखकर के जेल से बहार पहुचवाया था…..
उनकी अन्तिम इच्छा थी…..
“अगर कोई नोजवान उनकी "आत्मकथा” से प्रेरणा पाकर के देशसेवा मे अपना सर्वस्व अर्पण करना चाहे तो मे (बिस्मिल) अपने जिवन को धन्य समजुंगा"–
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इसी आशा व विश्वास के साथ मे निरन्तर….
#Facebook के माध्यम से बिस्मिल जी की आत्मकथा को आप सभी के मध्य प्रस्तुत कर रहा हु !“
#Whatsaap पर भी कुछ अंश….
शायद कोई #क्रांतिकारी आत्मा जाग उठ़े……
विशाल आर्य
Bharat Swabhiman Chittorgarh
प्रस्तुत है….
बिस्मिल की आत्मकथा…के अंश….
मेरी कुमारावस्था-जब मैं उर्दू का चौथा दर्जा पास करके पाँचवें में आया उस समय मेरी अवस्था लगभग चौदह वर्ष की होगी । इसी बीच मुझे पिताजी के सन्दूक के रुपये-पैसे चुराने की आदतपड़ गई थी । इन पैसों से उपन्यास खरीदकर खूब पढ़ता । पुस्तक-विक्रेता महाशय पिताजी के जान-पहचान के थे । उन्होंने पिताजी से मेरी शिकायत की । अब मेरी कुछ जाँच होने लगी । मैने उन महाशय के यहाँ से किताबें खरीदना ही छोड़ दिया ।
मुझ में दो-एक खराब आदतें भी पड़ गईं । मैं #सिगरेट पीने लगा । कभी-कभी भंग भी जमा लेता था । कुमारावस्था में स्वतन्त्रता पूर्वक पैसे हाथ आ जाने से और #उर्दू के प्रेम-रसपूर्ण उपन्यासों तथा गजलों की पुस्तकों ने आचरण पर भी अपना कुप्रभाव दिखाना आरम्भ कर दिया । घुन लगना आरम्भ हुआ ही था कि परमात्मा ने बड़ी सहायता की। मैं एक रोज #भंग पीकर पिताजी की संदूकची में से रुपए निकालने गया । #नशे की हालत में होश ठीक न रहने के कारण संदूकची खटक गई । माताजी को संदेह हुआ । उन्होंने मुझे पकड़ लिया । चाभी पकड़ी गई । मेरे #सन्दूक की तलाशी ली गई, बहुत से रुपये निकले और सारा भेद खुल गया । मेरी किताबों में अनेक उपन्यासादि पाए गए जो उसी समय फाड़ डाले गए ।
#परमात्मा की कृपा से मेरी चोरी पकड़ ली गई नहीं तो दो-चार वर्ष में न दीन का रहता और न दुनियां का । इसके बाद भी मैंने बहुत घातें लगाई, किन्तु पिताजी ने संदूकची का ताला बदल दिया था । मेरी कोई चाल न चल सकी । अब तब कभी मौका मिल जाता तो माताजी के #रुपयों पर हाथ फेर देता था । इसी प्रकार की कुटेवों के कारण दो बार उर्दू मिडिल की परीक्षा में उत्तीर्ण न हो सका, तब मैंने अंग्रेजी पढ़ने की इच्छाप्रकट की । पिताजी मुझे #अंग्रेजी पढ़ाना न चाहते थे और किसी व्यवसाय में लगाना चाहते थे, किन्तु माताजी की कृपा से मैं अंग्रेजी पढ़ने भेजा गया ।
दूसरे वर्ष जब मैं उर्दू मिडिल की परीक्षा में फेल हुआ उसी समय पड़ौस के देव- #मन्दिर में, जिसकी दीवार मेरे मकान से मिली थी, एक पुजारी जी आ गए । वह बड़े ही सच्चरित्र व्यक्ति थे। मैं उनके पास उठने-बैठने लगा । मैं मन्दिर में आने-जाने लगा । कुछ पूजा-पाठ भी सीखने लगा । पुजारी जी के उपदेशों का बड़ा उत्तम प्रभाव हुआ । मैं अपना अधिकतर समय स्तुति पूजन तथा पढ़ने में व्यतीत करने लगा । पुजारीजी मुझे #ब्रह्मचर्य पालन का खूब उपदेश देते थे । वे मेरे पथ-प्रदर्शक बने । मैंने एक दूसरे सज्जन की देखा-देखी #व्यायाम करना भी आरम्भ कर दिया । अब तो मुझे भक्ति-मार्ग में कुछ आनन्द प्राप्त होने लगा और चार-पाँच महीने में ही #व्यायाम भी खूब करने लगा । मेरी सब बुरी आदतें और कुभावनाएँ जाती रहीं । स्कूलों की छुट्टियाँ समाप्त होने पर मैंने मिशन स्कूल में अंग्रेजी के पाँचवें दर्जे में नाम लिखा लिया । इस समय तक मेरी और सब कुटेवें तो छूट गई थीं, किन्तु सिगरेट पीना न छूटता था । मैं सिगरेट बहुत पीता था। एक दिन में #पचास-साठ सिगरेट पी डालता था । मुझे बड़ा दुःख होता था कि मैं इस जीवन में सिगरेट पीने की कुटेव को न छोड़ सकूंगा । स्कूल में भरती होने के थोड़ेदिनों बाद ही एक सहपाठी श्रीयुत #सुशीलचन्द सेन से कुछ विशेष स्नेह हो गया । उन्हीं की ,दया के कारण मेरा सिगरेट पीना भी छूट गया ।
देव-मन्दिर में स्तुति-पूजा करने की प्रवृत्ति को देखकर श्रीयुत मुंशी ,इन्द्रजीत जी ने मुझे #सन्ध्या करने का उपदेश दिया । मुंशीजी उसी मन्दिर में रहनेवाले किसी महाशय के पास आया करते थे । व्यायामादि के कारण मेरा शरीर बड़ा सुगठित हो गया था और रंग निखर आया था । मैंने जानना चाहा कि सन्ध्या क्या वस्तु है ।
"मुंशीजी ने #आर्यसमाज सम्बन्धी कुछ उपदेश दिए । इसके बाद मैंने सत्यार्थप्रकाश पढ़ा । इससे तख्ता ही पलट गया । #सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन ने मेरे जीवन के इतिहास में एक नवीन पृष्ठ खोल दिया । मैंने उसमें उल्लिखित ब्रह्मचर्य के कठिन नियमों का पालन करना आरम्भ कर दिया” ।
मैं कम्बल को तख्त पर बिछाकर सोता और प्रातःकाल #चार बजे से ही शैया-त्याग कर देता । स्नान-सन्ध्यादि से निवृत्त हो कर व्यायाम करता, परन्तु मन की वृत्तियां ठीक न होतीं । मैने रात्रि के समय #भोजन करना त्याग दिया । केवल थोड़ा सा #दूध ही रात को पीने लगा । सहसा ही बुरी आदतों को छोड़ा था, इस कारण कभी-कभी #स्वप्नदोष हो जाता । तब किसी सज्जन के कहने से मैंने नमक खाना भी छोड़ दिया । केवल उबालकर साग या दाल से एक समय भोजन करता । मिर्च-खटाई तो छूता भी न था । इस प्रकार पाँच वर्ष तक बराबर नमक न खाया । नमक न खाने से शरीर के दोष दूर हो गए और मेरा स्वास्थ्य दर्शनीय हो गया । सब लोग मेरे स्वास्थ्य को आश्चर्य की दृष्टि से देखा करते थे ।
मैं थोड़े दिनों में ही बड़ा #कट्टर_आर्यसमाजी हो गया । आर्य-समाज के अधिवेशन में जाता-आता । सन्यासी महात्माओं के उपदेशों को बड़ी #श्रद्धा से सुनता । जब कोई सन्यासी आर्य-समाज में आता तो उसकी हर प्रकार से सेवा करता, क्योंकि मेरी #प्राणायाम सीखने की बड़ी उत्कट इच्छा थी । जिस सन्यासी का नाम सुनता, शहर से तीन-चार मील उसकी सेवा के लिए जाता, फिर वह सन्यासी चाहे जिस मत का अनुयायी होता।
जब मैं अंग्रेजी के सातवें दर्जे में था तब #सनातन धर्मी पण्डित #जगतप्रसाद जी शाहजहाँपुर पधारे उन्होंने आर्य-समाज का खण्डन करना प्रारम्भ किया । आर्य-समाजियों ने भी उनका विरोध किया और पं० #अखिलानंदजी को बुलाकर शास्त्रार्थ कराया । शास्त्रार्थ संस्कृत में हुआ । जनता पर अच्छा प्रभाव हुआ । मेरे कामों को देखकर मुहल्ले वालों ने पिताजी से मेरी शिकायत की ।
#पिताजी ने मुझसे कहा कि आर्य-समाजी हार गए, अब तुम आर्य-समाज से अपना नाम कटा दो ।
मैंने पिताजी से कहा कि…………
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आर्य-समाज के #सिद्धान्त #सार्वभौम हैं, उन्हें कौन हरा सकता है ?
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अनेक वाद-विवाद के पश्चात् पिताजी जिद्द पकड़ गए कि आर्य-समाज से #त्यागपत्र न देगा तो घर छोड़ दे । मैंने भी विचारा कि पिताजी का #क्रोध अधिक बढ़ गया और उन्होंने मुझ पर कोई वस्तु ऐसी दे पटकी कि जिससे बुरा परिणाम हुआ तो अच्छा न होगा । अत एव घर त्याग देना ही उचित है ।
मैं केवल एक कमीज पहने खड़ा था और पाजामा उतार कर धोती पहन रहा था । पाजामे के नीचे #लंगोट बँधा था । पिताजी ने हाथ से धोती छीन लीऔर कहा 'घर से निकल’ । मुझे भी क्रोध आ गया । मैं पिताजी के पैर छूकर #गृह त्यागकर चला गया । कहाँ जाऊँ कुछ समझ में न आया । शहर में किसी से जान-पहचान न थी कि जहाँ छिपा रहता । मैं जंगल की ओर भाग गया । एक रात और एक दिन बाग में पेड़ में बैठा रहा । भूख लगने पर खेतों में से हरे चने तोड़ कर खाए, नदी में स्नान किया और जलपान किया ।
दूसरे दिन “सन्ध्या” समय पं० #अखिलानन्दजी का व्याख्यान #आर्य-समाज मन्दिर में था । मैं आर्य-समाज मन्दिर में गया । एक पेड़ के नीचे एकान्त में खड़ा व्याख्यान सुन रहा था कि पिताजी दो मनुष्यों को लिए हुए आ पहुंचे और मैं पकड़ लिया गया । वह उसी समय स्कूल के हैड-मास्टर के पास ले गए । हैड-मास्टर साहब ईसाई थे । मैंने उन्हें सब वृत्तान्त कह सुनाया । उन्होंने पिताजी को समझाया कि समझदार लड़के को मारना-पीटना ठीक नहीं । मुझे भी बहुत कुछ उपदेश दिया । उस दिन से पिताजी ने कभी भी मुझ पर हाथ नहीं उठाया, क्योंकि मेरे घर से निकल जाने पर घर में बड़ा क्षोभ रहा । एक रात एक दिन किसी ने भोजन नहीं किया, सब बड़े दुःखी हुए कि अकेला पुत्र न जाने नदी में डूब गया, रेल से कट गया ! पिताजी के हृदय को भी बड़ा भारी धक्का पहुँचा । उस दिन से वह मेरी प्रत्येक बात सहन कर लेते थे, अधिक विरोध न करते थे । मैं पढ़ने में बड़ा प्रयत्न करता था और अपने दर्जे में प्रथम उत्तीर्ण होता था । यह अवस्था आठवें दर्जे तक रही ।
जब मैं आठवें दर्जे में था, उसी समय स्वामी श्री #सोमदेव जी सरस्वती आर्य-समाज #शाहजहांपुर में पधारे । उनके व्याख्यानों का जनता पर बड़ा अच्छा प्रभाव हुआ । कुछ सज्जनों के अनुरोध से स्वामी जी कुछ दिनों के लिए शाहजहाँपुर आर्य-समाज मन्दिर में ठहर गए । स्वामी जी की तबीयत भी कुछ खराब थी, इस कारण शाहजहाँपुर का जलवायु लाभदायक देखकर वहाँ ठहरे थे । मैं उनके पास आया-जाया करता था । प्राणपण से मैंने स्वामीजी महाराज की सेवा की और इसी सेवा के परिणामस्वरूप मेरे जीवन में #नवीन परिवर्तन हो गया । मैं रात को दो-तीन बजे तक और दिन-भर उनकी सेवा-सुश्रुषा में उपस्थित रहता । अनेक प्रकार की #औषधियों का प्रयोग किया । कतिपय सज्जनों ने बड़ी सहानुभूति दिखलाई, किन्तु रोग का शमन न हो सका । स्वामीजी मुझे अनेक प्रकार के #उपदेश दिया करते थे । उन उपदेशों को मैं श्रवण कर कार्य-रूप में परिणत करने का पूरा प्रयत्न करता । वास्तव में वह मेरे गुरुदेव तथा पथ-प्रदर्शक थे । उनकी शिक्षाओं ने ही मेरे जीवन में आत्मिक बल का संचार किया जिनके सम्बन्ध में मैं पृथक् वर्णन करूंगा ।
!! ब्रह्मचर्य व्रत का पालन !!
#वर्तमान समय में इस देश की कुछ ऐसी दुर्दशा हो रही है कि जितने धनी तथा गणमान्य व्यक्ति हैं उनमें 99 प्रतिशत ऐसे हैं जो अपनी सन्तान-रूपी अमूल्य धन-राशि को अपने नौकर तथा नौकरानियों के हाथ में सौंप देते हैं । उनकी जैसी इच्छा हो, वे उन्हें बनावें ! मध्यम श्रेणी के व्यक्ति भी अपने व्यवसाय तथा नौकरी इत्यादि में फँसे होने के कारण सन्तान की ओर अधिक ध्यान नहीं दे सकते । सस्ता काम चलाऊ नौकर या नौकरानी रखते हैं और उन्हीं पर बाल-बच्चों का भार सौंप देते हैं, ये नौकर बच्चों को नष्ट करते हैं । यदि कुछ भगवान की दया हो गई, और बच्चे नौकर-नौकरानियों के हाथ से बच गए तो मुहल्ले की गन्दगी से बचना बड़ा कठिन है ।
रहे-सहे स्कूल में पहुँचकर पारंगत हो जाते हैं । कालिज पहुँचते-पहुँचते आजकल के नवयुवकों के #सोलहों संस्कार हो जाते हैं । कालिज में पहुँचकर ये लोग समाचार-पत्रों में दिए औषधियों के विज्ञापन देख-देखकर दवाइयों को मँगा-मँगाकर धन नष्ट करना आरम्भ करते हैं । 95 प्रतिशत की आँखें खराब हो जाती हैं । कुछ को शारीरिक दुर्बलता तथा कुछ को फैशन के विचार से ऐनक लगाने की बुरी आदत पड़ जाती है शायद ही कोई विद्यार्थी ऐसा हो जिसकी प्रेम-कथा कथायें प्रचलित न हों । ऐसी अजीब-अजीब बातें सुनने में आती हैं कि जिनका उल्लेख करने से भी ग्लानि होती है ।यदि कोई विद्यार्थी सच्चरित्र बनने का प्रयास भी करता है और स्कूल या कालिज में उसे कुछ अच्छी शिक्षा भी मिल जाती है, तो परिस्थितियाँ जिनमें उसे निर्वाह करना पड़ता है, उसे सुधरने नहीं देतीं । वे विचारते हैं कि थोड़ा सा जीवन का आनन्द ले लें, यदि कुछ खराबी पैदा हो गई तो दवाई खाकर या पौष्टिक पदार्थों का सेवन करके दूर कर लेंगे । यह उनकी बड़ी भारी भूल है ।
अंग्रेजी की कहावत है….
“Only for one and for ever.”
तात्पर्य यह है कि कि यदि एक समय कोई बात पैदा हुई, मानो सदा के लिए रास्ता खुल गया ।
दवाईयाँ कोई लाभ नहीं पहुँचाती । अण्डों का जूस, मछली के तेल, मांस आदि पदार्थ भी व्यर्थ सिद्ध होते हैं । सबसे आवश्यक बात चरित्र सुधारना ही होती है । विद्यार्थियों तथा उनके अध्यापकों को उचित है कि वे देश की दुर्दशा पर दया करके अपने चरित्र को सुधारने का प्रयत्न करें । सार में ,ब्रह्मचर्य ही संसारी शक्तियों का मूल है ।
बिन ब्रह्मचर्य-व्रत पालन किए मनुष्य-जीवन नितान्त शुष्क तथा नीरस प्रतीत होता है । संसार में जितने बड़े आदमी हैं, उनमें से अधिकतर ब्रह्मचर्य-व्रत के प्रताप से बड़े बने और सैंकड़ों-हजारों वर्ष बाद भी उनका यशगान करके मनुष्य अपने आपको कृतार्थ करते हैं। ब्रह्मचर्य की महिमा यदि जानना हो तो परशुराम, राम, लक्ष्मण, कृष्ण, भीष्म, ईसा, मेजिनी बंदा, रामकृष्ण, #दयानन्द तथा राममूर्ति की जीवनियों का अध्ययन करो ।
जिन विद्यार्थियों को #बाल्यावस्था में कुटेव की बान पड़ जाती है, या जो बुरी संगत में पड़कर अपना आचरण बिगाड़ लेते हैं और फिर अच्छी शिक्षा पाने पर आचरण सुधारने का प्रयत्न करते हैं, परन्तु सफल मनोरथा नहीं होते, उन्हें भी निराश न होना चाहिए। मनुष्य-जीवन अभ्यासों का एक समूह है । मनुष्य के मन में भिन्न-भिन्न प्रकार के अनेक विचार तथा भाव उत्पन्न होते रहते हैं । क्रिया के बार-बार होने से उसमें ऐच्छिक भाव निकल जाता है और उसमें तात्कालिक प्रेरणा उत्पन्न हो जाती है । इन तात्कालिक प्रेरक क्रियाओं की, जो पुनरावृत्ति का फल है, 'अभ्यास’ कहते हैं । मानवी चरित्र इन्हीं अभ्यासों द्वारा बनता है । अभ्यास से तात्पर्य आदत, स्वभाव, बान है । अभ्यास अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के होते हैं । यदि हमारे मन में निरन्तर अच्छे विचार उत्पन्न हों, तो उनका फल अच्छे अभ्यास होंगे और यदि बुरे विचारों में लिप्त रहे, तो निश्चय रूपेण अभ्यास बुरे होंगे । मन इच्छाओं का केन्द्र है । उन्हीं की पूर्ति के लिए मनुष्य को प्रयत्न करना पड़ता है । अभ्यासों के बनने में पैतृक संस्कार, अर्थात् माता-पिता के अभ्यासों के अनुकरण ही बच्चों के अभ्यास का सहायक होता है । दूसरे, जैसी परिस्थियों में निवास होता है, वैसे ही अभ्यास भी पड़ते हैं । तीसरे, प्रयत्न से भी अभ्यासों का निर्माण होता है, यह शक्ति इतनी प्रबल हो सकती है कि इसके द्वारा मनुष्य पैतृक संसार तथा परिस्थितियों को भी जीत सकता है ।
हमारे जीवन का प्रत्येक कार्य अभ्यासों के अधीन है । यदि अभ्यासों द्वारा हमें कार्य में सुगमता न प्रतीत होती, तो हमारा जीवन बड़ा दुखमय प्रतीत होता । लिखने का अभ्यास, वस्त्र पहनना, पठन-पाठन इत्यादि इनके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं ।
यदि हमें प्रारम्भिक समय की भाँति सदैव सावधानी से काम लेना हो, तो कितनी कठिनता प्रतीत हो । इसी प्रकार बालक का खड़ा होना और चलना भी है कि उस समय वह कितना कष्ट अनुभव करता है, किन्तु एक मनुष्य मीलों तक चला जाता है । बहुत लोग तो चलते-चलते नींद भी ले लेते हैं । जैसे जेल में बाहरी दीवार पर घड़ी में चाबी लगाने वाले, जिन्हें बराबर छः घंटे चलना होता है, वे बहुधा चलते-चलते सो लिया करते हैं । मानसिक भावों को शुद्ध रखते हुए अन्तःकरण को उच्च विचारों में बलपूर्वक संलग्न करने का अभ्यास करने से अवश्य सफलता मिलेगी ।
प्रत्येक विद्यार्थी या नवयुवक को, जो कि ब्रह्मचर्य के पालन की इच्छा रखता है, उचित है कि अपनी दिनचर्या निश्चित करे । खान-पानादि का विशेष ध्यान रखे । महात्माओं के जीवन-चरित्र तथा चरित्र-संगठन संबन्धी पुस्तकों का अवलोकन करे । प्रेमालाप तथा उपन्यासों से समय नष्ट न करे । खाली समय अकेला न बैठे । जिस समय कोई बुरे विचार उत्पन्न हों, तुरन्त शीतल जलपान कर घूमने लगे या किसी अपने से बड़े के पास जाकर बातचीत करने लगे । अश्लील (इश्कभरी) गजलों, शेरों तथा गानों को न पढ़ें और न सुने । स्त्रियों के दर्शन सेबचता रहे । माता तथा बहन से भी एकान्त में न मिले । सुन्दर सहपाठियों या अन्य विद्यार्थियों से स्पर्श तथा आलिंगन की भी आदत न डाले।विद्यार्थी प्रातःकाल सूर्य उदय होने से एक घण्टा पहले शैया त्यागकर शौचादि से निवृत हो व्यायाम करे या वायु-सेवनार्थ बाहर मैदान में जावे । सूर्य उदय होने के पाँच-दस मिनट पूर्व स्नान से निवृत होकर यथा-विश्वास परमात्मा का ध्यान करे । सदैव कुऐं के ताजे जल से स्नान करे । यदि कुऐं का जल प्राप्त हो तो जाड़ों में जल को थोड़ा-सा गुनगुना कर लें और गर्मियों में शीतल जल से स्नान करे । स्नान करने के पश्चात् एक खुरखुरे तौलिये या अंगोछे से शरीर खूब मले । उपासना के पश्चात् थोड़ा सा जलपान करे । कोई फल, शुष्क मेवा, दुग्ध अथवा सबसे उत्तम यह है कि गेहूँ का दलिया रंधवाकर यथारुचि मीठा या नमक डालकर खावे । फिर अध्ययन करे और दस बजे से ग्यारह बजे के मध्य में भोजन ले ।
भोज में मांस, मछली, चरपरे, खट्टे गरिष्ट, बासी तथा उत्तेजक पदार्थों का त्याग करे । प्याज, लहसुन, लाल मिर्च, आम की खटाई और अधिक मसालेदार भोजन कभी न खावे । सात्विक भोजन करे । शुष्क भोजन का भी त्याग करे । जहाँ तक हो सके सब्जी अर्थात् साग अधिक खावे । भोजन खूब चबा-चबा कर किया करे । अधिक गरम या अधिक ठंडा भोजन भी वर्जित है । स्कूल अथवा कालिज से आकर थोड़ा-सा आराम करके एक घण्टा लिखने का काम करके खेलने के लिए जावे । मैदान में थोड़ा घूमे भी । घूमने के लिए चौक बाजार की गन्दी हवा में जाना ठीक नहीं । स्वच्छ वायु का सेवन करें । संध्या समय भी शौच अवश्य जावे । थोड़ा सा ध्यान करके हल्का सा भोजन कर लें । यदि हो सके तो रात्रि के समय केवल दुग्ध पीने का अभ्यास डाल लें या फल खा लिया करें ।
#स्वप्नदोषादि व्याधियां केवल पेट के भारी होने से ही होती हैं । जिस दिन भोजन भली भांति नहीं पचता, उसी दिन विकार हो जाता है या मानसिक भावनाओं की अशुद्धता से निद्रा ठीक न आकर स्वप्नावस्था में #वीर्यपात हो जाता है । रात्रि के समय साढ़े दस बजे तक पठन-पाठन करे, पुनः सो जावे । सदैव खुली हवा में सोना चाहिये । बहुत मुलायम और चिकने बिस्तर पर न सोवे । जहाँ तक होसके, लकड़ी के तख्त पर कम्बल या गाढ़े कपड़े की चद्दर बिछाकर सोवे । अधिक पाठ न करना हो तो 9 या 10 बजे सो जावे ।
प्रातःकाल 3 या 4 बजे उठकर कुल्ला करके शीतल जलपान करे और शौच से निवृत हो पठन-पाठन करें । सूर्योदय के निकट फिर नित्य की भांति व्यायाम या भ्रमण करें । सब व्यायामों में दण्ड-बैठक सर्वोत्तम है । जहाँ जी चाहा, व्यायाम कर लिया । यदि हो सके तो प्रोफेसर राममूर्ति की विधि से दण्ड-बैठक करें । प्रोफेसर साहब की विधि विद्यार्थियों के लिए लाभदायक है । थोड़े समय में ही पर्याप्त परिश्रम हो जाता है । दण्ड-बैठक के अलावा शीर्षासन और पद्मासन का भी अभ्यास करना चाहिए और अपने कमरे में वीरों और महात्माओं के चित्र रखने चाहियें ।
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