।।ओ३म्।।
🚩योगदर्शन🚩
पौष ८
(२२-१२-२०१५)
वृत्तिसारूप्यमितरत्र ।।
(यो. स.१-४)
अर्थः-
समाधिस्थ न होने पर उस उपसक योगी का स्वरूप चित्त वृत्तियों के समान बना रहता है।
व्याख्या- कल के सूत्र में हमने पढ़ा था की योग की स्थिति में योगी अपने आत्म स्वरूप् में स्थित रहता है पर जबतक योग नही होता तब तक उसका स्वरूप् चित्त की वृत्तियों के अनुसार बना होता है।अर्थात जैसी वृत्ति होती है आत्मा भी अपने को वेसा ही समझता है। चित्त की वृत्तियाँ क्या है ये इससे अगले सूत्र में बताया गया है।
(मुकेशार्यः कानड़)
ओ३म्
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