Sunday, December 27, 2015

बिक गयी है धरती , गगन बिक न जाए , बिक रहा है पानी,पवन बिक न जाए , चाँद पर भी बिकने लगी है जमीं ., डर...

बिक गयी है धरती , गगन बिक न जाए ,
बिक रहा है पानी,पवन बिक न जाए ,
चाँद पर भी बिकने लगी है जमीं .,
डर है की सूरज की तपन बिक न जाए ,
हर जगह बिकने लगी है स्वार्थ नीति,
डर है की कहीं धर्म बिक न जाए ,
देकर दहॆज ख़रीदा गया है अब दुल्हे को ,
कही उसी के हाथों दुल्हन बिक न जाए ,
हर काम की रिश्वत ले रहे अब ये नेता ,
कही इन्ही के हाथों वतन बिक न जाए ,
सरे आम बिकने लगे अब तो सांसद ,
डर है की कहीं संसद भवन बिक न जाए ,
आदमी मरा तोभी आँखें खुली हुई हैं
डरता है मुर्दा , कहीं कफ़न बिक न जाए


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2 comments:

  1. bahut hi marmik aur bhav vibhore kerne wali kavita

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  2. बहुत ही मर्मस्पर्शी कविता

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