बिक गयी है धरती , गगन बिक न जाए ,
बिक रहा है पानी,पवन बिक न जाए ,
चाँद पर भी बिकने लगी है जमीं .,
डर है की सूरज की तपन बिक न जाए ,
हर जगह बिकने लगी है स्वार्थ नीति,
डर है की कहीं धर्म बिक न जाए ,
देकर दहॆज ख़रीदा गया है अब दुल्हे को ,
कही उसी के हाथों दुल्हन बिक न जाए ,
हर काम की रिश्वत ले रहे अब ये नेता ,
कही इन्ही के हाथों वतन बिक न जाए ,
सरे आम बिकने लगे अब तो सांसद ,
डर है की कहीं संसद भवन बिक न जाए ,
आदमी मरा तोभी आँखें खुली हुई हैं
डरता है मुर्दा , कहीं कफ़न बिक न जाए
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bahut hi marmik aur bhav vibhore kerne wali kavita
ReplyDeleteबहुत ही मर्मस्पर्शी कविता
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