आवश्यकता है राष्ट्रीय जनसंख्या नीति की
तारीख: 28 Dec 2015 14:14:13

मुसलमान शासकों और अंग्रेजों के काल में भारत में जनगणना का आधार बिल्कुल भिन्न था। वस्तुत: उस समय इसका आधार होता था किसी भी प्रकार से अपने शासन को मजबूत बनाए रखना। मुसलमान आक्रमणकारियों, पठानों तथा मुगलों ने भारत का इस्लामीकरण या गुलामीकरण करने के भरसक प्रयास किए थे। क्रूर मुसलमान शासकों ने मजहबी उन्माद के आधार पर हिन्दुओं पर क्रूर अत्याचार, भीषण नरसंहार तथा जबरदस्ती कन्वर्जन किया था। (विस्तार के लिए देखें के.एस. लाल, ‘ग्रोथ ऑफ मुस्लिम पॉपुलेशन इन इंडिया’, नई दिल्ली 1973) ब्रिटिश सरकार के औपनिवेशिक शासन में केवल 'शासितों’ की जनगणना की जाती थी।
जनगणना का उद्ेश्य अपने शासन को सुदृढ़ तथा स्थाई बनाना होता था। इनका स्पष्ट उद्देश्य देश की सामाजिक, भाषायी, सांस्कृतिक एवं धार्मिक आयामों की जानकारी प्राप्त कर 'पहचान की राजनीति’ को प्रश्रय देना था। यह अंग्रेजों की नीति 'विभाजित करो एवं राज करो’ का आधार था। इसी क्रम में उन्होंने जातीय संरचना की विसंगतियों को उभारा और उसी के अनुकूल जनगणना की प्रश्नावलियां भी तैयार कीं। (विस्तार के लिए देखें प्रो. राकेश सिन्हा, भारत नीति प्रतिष्ठान, जनगणना, 2011 'बाधित दृष्टि : विखंडित विचार’, नई दिल्ली, 2010, पृ. 6, 61)। अंग्रेज सदैव हिन्दुओं की जनसंख्या को 'बड़ा खतरा’ कहते रहे। इसी नीति के अन्तर्गत वे मुस्लिम संरक्षण तथा तुष्टीकरण का सहारा लेते रहे। 1849 ई. में पंजाब का धोखे से विलय के पश्चात् सदैव वे हिन्दू और सिखों में भेद करते रहे। (देखें सतीश चन्द्र मित्तल की पुस्तक 'आधुनिक भारतीय इतिहास की प्रमुख भ्रांतियां,’ पृ. 117-128)’
1871 ई. की जनगणना में उन्होंने जनगणना अधिकारियों के लिए एक प्रश्न यह भी जोड़ा कि वे सदैव ध्यान रखें कि 'आर्य भारत से आए'। अंग्रेज अधिकारियों को भारत में जनगणना में जाति, भाषा और मत-पंथ के आधार पर वर्गीकरण उपनिवेश के हित में लगता था। भारत के तत्कालीन वायसराय तथा भारत मंत्री के पत्र व्यवहार से यह बात बार-बार स्पष्ट होती है। भारत मंत्री चार्ल्स वुड ने भारत के वायसराय लॉर्ड एलिग्न को 10 मई, 1862 ई. को लिखा था, 'जातियों के बीच सामान्यत: द्वेष हमारी शान्ति के लिए महत्वपूर्ण तत्व है।’ यदि 1881 से 1941 तक की जनगणना के आंकड़े देखें तो ज्ञात होता है कि हिन्दुओं की जनसंख्या बिना किसी अपवाद के निरंतर घटती रही और इसके विपरीत मुसलमानों की जनसंख्या सदैव बढ़ती रही। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 1881 ई. में हिन्दुओं की जनसंख्या 79.9 प्रतिशत थी, जो क्रमश: 1891 ई. में 74.24 प्रतिशत, 1901 ई. में 72.87 प्रतिशत, 1911 ई. में 71.68 प्रतिशत, 1921 ई. में 70.73, 1931 में 70.67 तथा 1941 में 69.48 प्रतिशत रही। (देखें प्रो. विक्टर पेट्रोन, 'इंडिया : स्पाटलाईट्स ऑन पॉपुलेशन,’ पृ. 781)। अर्थात् इन साठ वर्षों में विश्व के एकमात्र हिन्दू बहुसंख्यक देश भारत में हिन्दुओं की लगभग 6 प्रतिशत जनसंख्या घट गई थी। विश्व में शायद किसी भी देश में ऐसा घटता हुआ अनुपात रहा हो। इसके विपरीत मुसलमानों की जनसंख्या 1881 ई. में कुल 19.97 प्रतिशत थी, जो क्रमश: 1891 ई. में 20.41 प्रतिशत, 1901 ई. में 21.88 प्रतिशत, 1911 ई. में 22.39 प्रतिशत, 1921 में 23.33 प्रतिशत, 1931 में 23.49 प्रतिशत तथा 1941 में 24.28 प्रतिशत हो गई थी। अर्थात् इस कालखण्ड में मुसलमानों की जनसंख्या 5 प्रतिशत बढ़ी। हिन्दू-मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि का यह असन्तुलन अनोखा था। इसमें अनेक कारण थे। जैसे अंग्रेजों द्वारा मुस्लिम संरक्षण, तुष्टीकरण तथा उनका पक्षपातपूर्ण रवैया आदि। यह सर्वविदित है कि अंग्रेजी सरकार ने 1941 ई. की जनगणना में जानबूझकर मुसलमानों के साथ पक्षपातपूर्ण नीति अपनाई थी। (वही. पृ. 77)। इसी भांति अंग्रेजों ने भारत में जातीय भेद बढ़ाकर समाज में अलगाव, टकराव तथा बिखराव किया था। यहां तक कि उन्होंने देश को 'मार्शल’ तथा 'गैर मार्शल’ जातियों में कृत्रिम और मनमाने ढंग से बांट दिया था।
राष्ट्रीय जनगणना नीति
यह सर्वज्ञात है कि भारत का विभाजन अथवा पाकिस्तान का निर्माण कांग्रेस, जो उस समय देश के 70 प्रतिशत जनसंख्या का प्रतिनिधि होने का दावा करती थी, ने मजहब के आधार पर स्वीकार किया था। भारत के 96.5 प्रतिशत मुसलमानों ने पाकिस्तान के निर्माण का समर्थन किया था। केवल 3.5 प्रतिशत मुसलमानों ने इसका विरोध किया था। परन्तु 1951 ई. की दसवर्षीय जनगणना के आंकड़ों से ज्ञात होता है भारत में स्वतंत्रता के पश्चात् हुई पहली जनगणना में हिन्दुओं की जनसंख्या 84.48 प्रतिशत थी तथा मुसलमानों की जनसंख्या अचानक बढ़कर 9.91 प्रतिशत हो गई थी। अचानक जनसंख्या बढ़ने का प्रमुख कारण यह था कि अनेक मुसलमान भारत के प्रधानमंत्री पं. नेहरू के आश्वासन पर भारत में ही रुक गए थे, यद्यपि उन्होंने पाकिस्तान के निर्माण का भरपूर समर्थन किया था। इसकी चर्चा भारत की संविधान निर्मात्री सभा की कार्यवाही में भी हुई थी। इतना ही नहीं, अनेक मुसलमान पाकिस्तान से लौटकर वापस भारत आ गए थे। वस्तुत: इस संवेदनशील विषय पर सरकार ने गंभीरता से विचार नहीं किया था। 1961 ई. की जनगणना में हिन्दुओं की जनसंख्या 85 प्रतिशत थी, जो 1971 ई. में घटकर 83.00 प्रतिशत हो गई थी। जबकि मुसलमानों की जनसंख्या बढ़कर 11.21 प्रतिशत हो गई थी।
26 जनवरी, 1950 से भारत का संविधान लागू हुआ तथा गणतंत्र की स्थापना हुई। अभी तक भारत में जनगणना नीति ब्रिटिश शासकों के आधार 'शासितों’ पर शासन करने तथा अपने मनमाने ढंग से जनसंख्या वृद्धि को प्रोत्साहन देने, नियम बनाने तथा आदेशों को लादने की थी, परन्तु अब स्वतंत्र भारत में जनगणना का विषय नागरिकों के लिए था। अत: जनगणना की प्रश्नावली भी बदल गई थी। जहां ब्रिटिश शासनकाल में जनगणना में विघटनकारी तथा अलगाववादी प्रश्नों को प्रमुखता दी गई थी, अब इसका जोर भाषा, प्रांत सम्प्रदाय एवं जाति जैसे विभेदों को समाप्त करना था। प्रमुखत: जाति विभेद दूर करना चर्चा का प्रमुख एजेण्डा रहा था। संविधान सभा में इस पर गंभीर विचार-विनिमय भी हुआ था। डॉ. बी.आर. आम्बेडकर ने जाति प्रथा को 'राष्ट्र विरोधी’ अवधारणा कहा था। उन्होंने कहा था, 'हजारों जातियों में विभाजित लोग कैसे एक राष्ट्र हो सकते हैं? जितनी जल्दी हम यह अनुभूति कर लें कि सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक स्वरों पर हम एक राष्ट्र हैं, हमारे लिए उतना ही अच्छा होगा। तभी हम एक राष्ट्र बनने की आवश्यकता महसूस कर सकते हैं और इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए गंभीरतापूर्वक रास्ता ढूंढ सकते हैं। यह लक्ष्य प्राप्त करना बड़ा कठिन है। संयुक्त राज्य अमरीका से भी कठिन। अमरीका में जाति व्यवस्था नहीं है, जबकि भारत में जाति व्यवस्था है। जातियां राष्ट्र विरोधी होती हैं, क्योंकि वे सामाजिक जीवन में अलगाव पैदा करती हैं। वे इसलिए भी राष्ट्र-विरोधी होती हैं कि वे जातियों के बीच में वैमनस्य एवं ईर्ष्या पैदा करती हैं, लेकिन यदि हम एक राष्ट्र के रूप में स्थापित होना चाहते हैं तो हमें इन कठिनाइयों से उबरना होगा।’ (बी.आर. आम्बेडकर, डिबेट, कांस्टीच्युएट अंसेबली ऑफ इंडिया, भाग 11, 25 नवम्बर, 1949)।
देश के अन्य महापुरुषों ने भी तब इसी प्रकार के विचार व्यक्त किए थे। प्रसिद्ध समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने जातिभेद को समानतामूलक समाज की स्थापना में सबसे बड़ी अड़चन माना। पं. दीनदयाल उपाध्याय ने जाति के आधार पर मतदाताओं से अपील का विरोध किया। (पाञ्चजन्य, 5 फरवरी, 1962)। इसी के साथ ब्रिटिश शासन से चले आ रहे मुस्लिम तुष्टीकरण की भी आलोचना की गई।
५यह आशा थी कि भारतीय गणतंत्र में देश के सभी राजनीतिक दल भारतीय संविधान की मूल भावना के अनुरूप राष्ट्र को मजबूत बनाएंगे तथा एकता के सूत्र में बांधेंगे। परन्तु इसकी सर्वप्रथम अवहेलना तथा दुरुपयोग सर्वप्रथम देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस ने किया। कांग्रेस ने अपने घटते हुए जनाधार के कारण ब्रिटिश शासकों की नीति 'बांटो और राज करो’ अपनाई तथा मुस्लिम तुष्टीकरण और मुस्लिम अलगाव भाव जगाकर उन्हें भारत की राष्ट्रीय मुख्यधारा से दूर रखा। उन्होंने मुस्लिम अल्पसंख्यक तथा हिन्दू साम्प्रदायिकता का राग अलापा तथा आपातकाल के दौरान संविधान में 'समाजवाद’ तथा 'सेकुलरवाद’ को जोड़कर राजनीतिक हथियार के रूप में प्रयोग किया। एकमात्र कांग्रेसी नेता संजय गांधी ने मुस्लिम तुष्टीकरण का अवश्य कुछ विरोध किया। विशेषकर परिवार नियोजन में नसबन्दी को लेकर तुर्कमान गेट, दिल्ली के आस-पास के क्षेत्र में अभियान चलाकर। पर कांग्रेस के भावी एजेण्डे से हमेशा के लिए परिवार नियोजन अभियान समाप्त हो गया। बल्कि राजीव गांधी, सोनिया गांधी के काल में मुसलमानों को तरह-तरह की सुविधाएं देने के तरीके अपनाए गए। कांग्रेस की देखा-देखी अन्य छद्म सेकुलरवादी दलों ने भी जातिवाद का उन्माद बढ़ाया तथा मुसलमानों की मजहबी भावना को भड़काया। स्वाभाविक है इसने जनसंख्या वृद्धि के सन्तुलन को भी बिगाड़ा। 2011 की भारतीय जनगणना में मुस्लिम जनसंख्या के आंकड़े चौकाने वाले हैं। इसमें मुसलमानों की जनसंख्या 14 प्रतिशत बताई गई है। इसमें गैर-कानूनी रूप से आए बंगलादेशी मुसलमान शामिल नहीं हैं। यदि उन्हें भी मिला दें तो यह जनसंख्या 16 से 18 प्रतिशत तक हो सकती है।
जनसंख्या नीति का निर्णय
उल्लेखनीय है कि भारत ने विश्व के सर्वाधिक जनसंख्या वाले देश चीन से भी पहले 1952 ई. में ही जनसंख्या नियंत्रण के उपायों की घोषणा की थी। इस नीति का उद्देश्य सकल प्रजनन दर (टी.एफ.आर.) को 2.1 के प्रतिस्थापन स्तर तक लाने का था और यह भी तय किया गया था कि इस लक्ष्य को सन् 2010 तक प्राप्त कर लिया जाएगा। यह अपेक्षा थी कि अपने राष्ट्रीय संसाधनों और भविष्य की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए प्रजनन दर का यह लक्ष्य समाज के सभी वर्गों पर समान रूप से लागू होगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। यदि इस नीति पर गंभीरता से काम किया जाता तो 2001 में जनसंख्या 10130 लाख होती, परन्तु मार्च, 2001 ई. में यह जनसंख्या 10270 लाख हो गई थी। अर्थात्् सोचे गए आंकड़े को पारकर लगभग 140 लाख आगे पहुंच गई थी। बढ़ती जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए फरवरी 2001 ई. में एक समग्र राष्ट्रीय जनसंख्या नीति का निर्माण और जनसंख्या आयोग का गठन किया गया। इसमें कुछ तात्कालिक लक्ष्य, कुछ मध्यावधि तथा कुछ दीर्घकालीन अवधि के उद्देश्य निर्धारित किए गए और कहा गया था कि 2045 ई. तक लक्ष्य प्राप्त कर लिया जाएगा। परन्तु प्राप्त तथ्यों से ज्ञात होता है कि योजनानुसार यह नीति सभी वर्गों पर समान रूप से लागू ही नहीं हुई है।
2005-2006 का राष्ट्रीय प्रजनन एवं स्वास्थ्य सर्वेक्षण और 2011 की जनगणना के 0.6 आयु वर्ग के पांथिक आधार पर प्राप्त आंकड़ों से असमान सकल प्रजनन दर एवं बाल जनसंख्या अनुपात का पता चलता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि 1951 से 2011 की जनगणना में जहां भारत में उत्पन्न मत-पंथों के अनुयायियों का अनुपात 84.48 प्रतिशत से घटकर 83.8 प्रतिशत रह गया, वहीं मुस्लिम जनसंख्या का अनुपात 9.8 प्रतिशत से बढ़कर 14.23 प्रतिशत हो गया। इसके साथ ही सीमावर्ती प्रदेशों असम, पश्चिम बंगाल व बिहार के सीमावर्ती जिलों में तो मुस्लिम जनसंख्या की वृद्धि दर राष्ट्रीय औसत से कहीं अधिक थी। बंगलादेशी घुसपैठियों ने यह असन्तुलन और बढ़ा दिया था।
3 अप्रैल, 2015 को वाशिंगटन के पीयू नामक एक अमरीकी थींक टैंक ने 2010 से 2050 ई. तक के सन्दर्भ में, विश्व में विभिन्न पांथिक समुदायों की अनुमानित जनसंख्या रपट दी है। इसके अनुसार विश्व में तब तक 35 प्रतिशत जनसंख्या वृद्धि होगी। इसके अनुसार मुसलमानों की जनसंख्या सर्वाधिक 73 प्रतिशत, ईसाई समाज की 35 प्रतिशत तथा हिन्दुओं की जनसंख्या 34 प्रतिशत बढ़ेगी। भारत के सन्दर्भ में रपट में मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि दर बढ़ने के दो कारण दिए गए हैं- प्रथम, मुसलमान युवकों के विवाह की औसत आयु 22 वर्ष है, जबकि गैर-मुस्लिम युवकों की 30 वर्ष। अर्थात् मुसलमानों को 7-8 व
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