● मुम्बई में महर्षि दयानन्द का पादरी कुक को शास्त्रार्थ के लिए आवाहन करता हुआ एक महत्त्वपूर्ण पत्र ●
(सन्दर्भ ग्रन्थः ‘ऋषि दयानन्द सरस्वती के पत्र और विज्ञापन’, पृष्ठ 307-308, सम्पादक : पण्डित भगवद्दत्त जी, द्वितीय संस्करण 1955 ई०, प्रस्तुति : भावेश मेरजा, 19.12.2015)
मूल पत्र - Original letter:
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(from Pandit Dayananda Saraswati to Mr Joseph Cook)
Walkeshwar, Bombay,
January 18, 1882
Sir,
In your public lectures you have affirmed -
(1) That Christianity is of Divine origin.
(2) That it is destined to overspread the earth.
(3) That no other religion is of divine origin.
In reply, I maintain that neither of these propositions is true. If you are prepared to make them good, and to ask the people of Aryaavarta (India) to accept your statements without proof, I will be happy to meet you for discussion. I name next Sunday evening at 5.30, at which time I am to lecture at Framji Cowasji Institute. Or, if that should not be convenient to you, then you may name your own time and place in Bombay. As neither of us speaks the others language, I stipulate that our respective arguments shall be translated to other, and that a short-hand report of the same shall be signed by us both. The discussion must also be held in the presence of respectable witnesses brought by each party, of whom at least three or four shall sign the report with us; and the whole to be placed in a pamphlet form, so that the public may judge for themselves which religion is most divine.
- Dayananda Saraswati
(उक्त मूल अन्ग्रेजी में लिखे गए पत्र का भाषानुवाद - हिन्दी अनुवाद)
पण्डित दयानन्द सरस्वती की ओर से मिस्टर जॉसेफ़ कुक साहब के पास…
बालकेश्वर मुम्बई
जनवरी 18, 1882
महाशय,
आपने अपने सर्वसाधारण व्याख्यानों में निश्चय पूर्वक कथन किया है कि -
(1) कृश्चिन (ईसाई) धर्म ईश्वर मूलक है ।
(2) यह पृथ्वी भर में अवश्य ही विस्तृत हो जाएगा ।
(3) अन्य कोई भी धर्म ईश्वर मूलक नहीं है ।
उत्तर में मेरा कथन है कि उक्त प्रतिज्ञाओं में से एक भी ठीक नहीं है । यदि आप उक्त प्रतिज्ञाओं को यथार्थ सिद्ध करना चाहते हैं और आर्यावर्त्त निवासियों को अपने कथनों को विना प्रमाण प्रस्तुत किए स्वीकृत कराना नहीं चाहते तो मैं प्रसन्नता पूर्वक आपसे शास्त्रार्थ करने के लिए उद्यत रहूंगा । आगामी रविवार सन्ध्या समय साढ़े पांच बजे जबकि मैं फ्रामजी कावसजी इन्स्टिट्यूट में व्याख्यान दूंगा, शास्त्रार्थ के लिए नियत करता हूं । यदि उक्त समय आपको सुविधा का न हो तो आप अपनी इच्छानुसार कोई समय तथा बम्बई का कोई स्थान शास्त्रार्थ के लिए नियत करें । क्योंकि हम दोनों में से कोई भी एक दूसरे की भाषा नहीं बोल सकता । अतः मैं निर्धारित करता हूं कि मेरे तर्क आपको और आपके तर्क मुझको अनुवादित कर सुना दिए जाएं और हम दोनों के कथन संक्षिप्त लेखबद्ध होकर उन पर हम दोनों के हस्ताक्षर हो जाएं । आपकी ओर तथा मेरी ओर से प्रतिष्ठित साक्षिओं का भी शास्त्रार्थ में विद्यमान रहना आवश्यक है, जिन में से तीन वा चार को भी उक्त संक्षिप्त लेख पर हम लोगों के साथ हस्ताक्षर करना पड़ेगा । उक्त शास्त्रार्थ पुस्तकाकार छप कर सर्व साधारण के सन्मुख प्रस्तुत किया जाएगा, जिसे देख कर लोग अपना निश्चय कर लेंगे कि कौन-सा धर्म श्रेष्ठ ईश्वरोक्त है ।
- दयानन्द सरस्वती
प्रस्तुतकर्ता की टिप्पणियां :
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1. पादरी जॉसेफ़ कुक साहब ने महर्षि के इस पत्र का कोई उत्तर नहीं दिया । २० जनवरी को अर्थात् दो दिन पश्चात् वे पूना चले गए । तब महर्षि ने अपनी विज्ञापित योजना अनुसार एक व्याख्यान देकर पादरी कुक के इन दावों का खण्डन किया ।
2. ध्यातव्य है कि यह मूल अन्ग्रेजी पत्र थियोसोफिकल सोसाइटी के संस्थापक कर्नल आल्कोट ने महर्षि के अभिप्राय अनुसार लिखा था । परन्तु इस पत्र के अन्त में 'most divine’ (श्रेष्ठ ईश्वरोक्त) शब्द कर्नल ने अपनी ओर से छल पूर्वक जोड़ दिया था । महर्षि तो केवल और केवल ऋग्वेदादि चार मन्त्र संहिताओं को अर्थात् वैदिक धर्म को ही ईश्वरोक्त मानते थे । अतः महर्षि की दृष्टि में एक से अधिक धर्मों का ईश्वरोक्त होने का प्रश्न ही नहीं था । इस बात की टिप्पणी सन्दर्भ ग्रन्थ 'ऋषि दयानन्द सरस्वती के पत्र और विज्ञापन’ में दी गई है । महर्षि के 'थियोसोफिस्टों की गोलमाल पोलपाल’ ('Humbuggery of the Theosophists’) शीर्षक विज्ञापन के पैरा 9 में भी कर्नल के इस छल का उल्लेख किया गया है ।
3. वैदिक धर्म की श्रेष्ठता को पूर्णतः हृदयंगम कर, उसी को समग्र विश्व में प्रसारित करने की विजिगीषु भावना वाले, महर्षि दयानन्द सदृश दृढ़ निश्चयी आत्मविश्वासी धर्मोपदेशक जो साम्प्रदायिक विधर्मी प्रचारकों को इस प्रकार शास्त्रार्थ के लिए ललकार सके आज वास्तव में दुर्लभ हैं ।
4. महर्षि का यही पत्र 'पत्र और विज्ञापन’ के 1981 ई० में प्रकाशित तृतीय संस्करण के द्वितीय भाग के पृष्ठ 528-530 पर भी पढ़ा जा सकता है ।
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