हिंसक-रक्षक संवाद :-
हिंसक- ईश्वर ने सब पशु आदि सृष्टि मनुष्य के लिये रची है, और मनुष्य अपनी भक्ति के लिये । इसलिये मांस खाने में दोष नहीं हो सकता I
रक्षक - भाई ! सुनो, तुम्हारे शरीर को जिस ईश्वर ने बनाया है, क्या उसी ने पशु आदि के शरीर नहीं बनाये है ? जो तुम कहो कि पशु आदि हमारे खाने को बनाये हैं, तो हम कह सकते है कि हिंसक पशुओं के लिये तुमको उसने रचा है, क्योंकि
जैसे तुम्हारा चित्त उनके मांस पर चलता है, वैसे ही सिंह, गृघ्र आदि का चित् भी तुम्हारे मांस, खाने पर चलता है, तो उन के लिये तुम क्यों नहीं ?
हिंसक - देखो, ईश्वर ने पुरुषों के दांत कैसे पैने मांसाहारी पशुओं के समान बनाये हैं । इससे हम जानते हैं कि मनुष्यों को माँस खाना उचित है।
रक्षक - जिन व्यघ्रादि पशुओं के दांत के दृष्टान्त से अपना पक्ष सिद्ध करना चाहते हो, क्या तुम भी उनके तुल्य ही हो ? देखो, तुम्हारी मनुष्य जाति उनकी पशु-जाति, तुम्हारे दौ पग और उनके चार, तुम विद्या पढ़ कर सत्यासत्य का विवेक कर सकते हो वे नहीं । और यह तुम्हारा दृष्टान्त भी युक्त नहीं, क्योंकि जो दांत का दृष्टान्त
लेते हो तो बन्दर के दांतों का दृष्टान्त क्यों नहीं लेते ? देखों बंदरों के दांत सिंह, मौर व बिल्ली आदि के समान है ओर वे मांस नहीं खाते । मनुष्य और बंदर की आकृति के भी है । इसलिये परमेश्वर ने मनुष्यों को दृष्टान्त से उपदेश किया है कि जैसे बंदर मांस कभी नहीं खाते और फलादि खाकर निर्वाह करते है, वैसे तुम भी किया करो I जैसा बंदरों का दृष्टान्त सांगोपांग मनुष्यों के साथ घटता है, वैसा अन्य किसी का नहीं । इसलिये मनुष्यों को उचित है कि मांस सर्वथा छोड़ देवें।
हिंसक - तुम लोग शाकाहारी-शाकाहारी कहते हो क्या वृक्षादि में जीवन नहीं ?
रक्षक - बिलकुल जीवन है। परन्तु जैसा तुम मानते हो वैसा नहीं। वृक्षादि सुषुप्त अवस्था में रहते है अत: उनमें सुख-दुःख की अनुभूति नाम-मात्र ही है। वेदों में उनका भी आवश्यकता अनुसार उचित मात्रा में उपयोग करने की आज्ञा है। देखो ! जब हम पशु आदि को मरते है तो वे कितना रोदन आदि विलाप करते है जबकि वृक्षादि में वैसा नहीं।
……Dinesh Sharma
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