Thursday, February 19, 2015

मनुष्य ने जो सुख जाने है वे ऐन्द्रिक है। एक सुख जाना है स्वाद का। एक सुख जाना है नाद का। एक सुख जाना...

मनुष्य ने जो सुख जाने है वे ऐन्द्रिक है।

एक सुख जाना है स्वाद का।

एक सुख जाना है नाद का।

एक सुख जाना है रुप का।

ये इंद्रियोँ द्वारा जाने गए सुख हैँ।ये बाहर से आए हैँ।

सुंदर सुबह हुई और मनुष्य की आंखे विमुग्ध हुईं और भीतर बड़ा सुख आया।

लेकिन ये बाहर से आया है।

ये सहज नही है।ये मनुष्य के भीतर नही जन्मा है।

भोजन किया,स्वाद मिला और सुख की प्रतीति हुई।ये भी बाहर से आया है।

वह आनंद बाहर से नही आता है-भीतर ही आविर्भूत होता है।

उसकी स्फुरणा भीतर ही होती है।

वह नाद भीतर बजता है।

वह स्वाद भीतर उठता है।

वह रुप भीतर सघन होता है।

इंद्रियो के माध्यम से नही आता-अतींद्रिय है,अलौकिक है।

उसका कोई पारावार नही है।

उसकी बाढ़ आती है।

आता है तो जैसे पूरा आकाश टूट पड़ा हो।

न इसमे अपने का भान रहता है न पराये का।

वहां सब मिट जाता है-न कोई तू न कोई मै।

सब विदा हो जाते हैँ।

वहां कौन तू कौन मै।

मै-तू का सारा खेल बाहर-2 है।

बाहर एक मनुष्य दूसरे से अलग है।

भीतर सब एक हैँ।

केवल सभी मनुष्य नही-वृक्ष,पशु और पक्षी आदि सभी एक हैँ।

ऐसा भी नही है कि जो समसामयिक है केवल वे एक हैं।

जो पहले हुए और जो बाद मे होगे सभी वहां एक हैँ।




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